Sunday, July 11, 2021

ALLAMA IQBAL –KABHI AYE HAQEEQAT-E -MUNTZIR

 

 

ALLAMA IQBAL –KABHI AYE HAQEEQAT-E- MUNTZIR

 

Allama Iqbal ( 1877-1938 AD) was a poet, mystic, intellectual and literary genius of the highest order. His ghazals, writings, and thoughts have inspired all the generations. But his mystic profile is highly complex to comprehend.  His seven stanzas of ghazal KABHI AYE HAQEEQAT -E MUNTZIR can have multiple meanings and interpretations, some of which are reflected below.

The narrative is expressed in three modes—superficial meaning, introspective connotation, and mystical understanding.  

1.       कभी हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र लिबास-ए-मजाज़ में

कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में

 PRAYER FOR MANIFESTATION OF THE DIVINE in the visible format.  God cannot be seen with these naked eyes. Iqbal's yearning was perhaps of a different kind of inner dimension.

  

2.       तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो

वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में

HEARING OF THE HEAVENLY MUSIC, through inner contemplation amidst the worldly tumult of human weaknesses of desires, wants, attachments, infatuations, is the subject of this stanza.

 

3.       तू बचा बचा के रख इसे तिरा आइना है वो आइना

कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में

ELIMINATION OF THE DUALITY is imperative for attaining Oneness with the Lord. A broken heart or a crushed mirror is preferred because it destroys the duality—a highly dichotomous observation for experiencing Reality.   

 

4.       दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन

तिरी हिकायत-ए-सोज़ में मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में

 DILEMMA OF THE LOVER AND THE BELOVED by a symbolic reference to moth and flame. The moth ends its life, and the flame dies.  None survives in the Love.   

 

5.       कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली

मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में

SELF INTROSPECTION of neglecting the devotion and seeking solace, through inner forgiveness in the realization of the Supreme Being.  

 

6.       वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ

वो ग़ज़नवी में तड़प रही वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं

 LOVE-ISHQ as the primary path of Ibadat

  

7.       मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा

तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में 

THE GAME OF MIND—that leads to delusion of dedication to the Creation  instead of the Creator.

 

 

 

 

1) PRAYER FOR MANIFESTATION OF THE DIVINE

 

कभी हक़ीक़त--मुंतज़र नज़र लिबास--मजाज़ में

कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन--नियाज़ में

 

हक़ीक़त =God or the Truth or the Ultimate Reality, मुंतज़र= Awaiting, लिबास--मजाज़= to manifest in visible form, जबीन--नियाज़=forehead lowered in humility

 

बाहरी लहजा-       हे खुदा, मेरे रब,  -- मैं दीवानगी की रंजिश में हूँ, तेरे दीदार की बेताबी को बरदाश्त नहीं कर सकता, ,और दुआ करता हूँ कि अपने वजूद  को ज़ाहरी रूप में मेरी आँखों में आशकार कर दे  तुम्हारी मुकदस शान को हजारों सजदों से इस्तकबाल करूँ॥

 

बातिनी लहजा

इस मिसरे का तालुक इश्क इरफानी से है॥ 

अलामा इकबाल सिर्फ एक आलम फ़ाज़ल ही नहीं थे बल्कि सूफियाना फलसफा और एहसास के हासिल इंसान भी थे॥ जिस इबादत-ए- इश्क या मिज़ाज में यह ख्याल लिखा गया उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी रूह रब से विसाल के लिए तड़प रही थी॥ इस को विरह या बिरह का हाल भी कहा जा सकता है ऐसे इश्क की पीड़ बड़ी अनोखी हैजैसे सौ सौ सूल जिगर में जख्म कर रहे हों और नैनों से नीर की बारिश हो रही हो॥

रब के तसुवर के एहसास  की फर्याद तो की जा सकती  है पर वोह दीदार भी उसकी रहमत से मिलता  है, कि सिर्फ अपनी दुआ की चाहत से, और ही ऐसा मंज़र बाहरली आँखों से हो सकता है,जो कि फ़ना की दुनिया को देखने के काबिल हैं   इस राज़ से इकबाल अच्छी तरह से वाकिफ थे

 

रबी दीदार अगर कलब--पाक (pure heart) में हो जाए तो उसका नूर सारी कुदरत और कायनात में देखा जा सकता है --- यही बजुर्गों -- दीन या पीरों--औलियोन का मानना है अपने दिल को हल्का करने के लिए और अपनी आँदूरणी परेशानी को शिफ़ा के लिए इकबाल ने अपने जज़्बातों को अल्फ़ाज़ों का जामा पहनाया॥ ऐसे ख्याल तभी सकता हैं जब की रूह और मन की सारी तवजू का मरकज़ रब ही हो॥ ऐसे दीदारको अपने मुकद्दर की शुक्रगुज़ारी समझेंगे और इकबाल अपनी ला-इंतह खुशी का इजहार  हजारों- लाखों सजदों में  करेंगे

 

Mystical understanding --If we ruminate deeper in the text of Iqbal, then obvious questions that may arise are ---

 

a)      Was Iqbal unaware that the Supreme Reality is formless, infinite, boundless, eternal, and beyond the concept of time and space? That which the human eye cannot capture or experience in the physical domain.

b)      Baba Bulleh shah writes—ओह शोह असां तों वख नहीं, ते शोह तों भाजों कख नहीं॥ पर देखन वाली अख नहीं तां जान जुदाईयां सहंदी है ॥

c)       Was Iqbal unaware that the Divine manifestation has always been in human form of— Rasool, Pagembers, Auwliyas,  Sons of God, Saints, Satguru, Murshid-e Kamil or "word made flesh".  Be it Abraham, Moses, Jesus, Prophet Mohammad (PBUH), Kabir Sahib, Guru Nanak Sahib, his descendants.  Indeed it is that लिबास--मजाज़  of his Murshid that Iqbal might be craving for.  

d)      Hazrat Sultan Bahu also makes a similar aspirational echo by saying—एह तन मेरा चशमा  होवे मैं मुरशिद देख न रजां हू ॥ मुरशिद दा दीदार वे मेनू लख करोड़अं हजअं हू ॥

 

Moreover, thousands of prostrations (हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन--नियाज़) is a symbolic statement of profound inner gratitude.  These prostrations cannot be performed externally.  Conceptually this is Ishq-Haqeeqi or enlightened love  --इसी को इरफानी इश्क कहा गया है          

 

2 HEARING OF THE HEAVENLY MUSIC AMIDST WORLDLY TUMULT

 

तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो

वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में

तरब =Happiness, आशना =desires, ख़रोश= noise  , नवा=sound   महरम= friendliness, गोश= ear, सरोद =musical instrument  सुकूत= silent

 

When noisy desires, happiness, and pleasures of the material world befriend us and veil the Divine Reality, what is the use of the melody of the musical instrument (सरोद)-- or the heavenly music--   that remains inaudible.

 

बाहरी लहजा-       जब दुनिया की खाविशे और लज्जतें का शोर--गुल हमारे दिल--दिमाग पर हावी होता हैं तब उस रूहानी मुकदस आवाज--मुस्तकीम, कलाम --इलाही, बांग--असमानी की मीठी तरन्नुम (music of the spheres in  the Holy Bible) – (जिस को छुपी हुई सरोद की मौसिकी से अलामा इकबाल ने मवाज़ा है या compare किया है) --का क्या फायदा, जो सुनायी ही नहीं देती॥ इकबाल की गुज़ारिश है कि अल्लाह तू अपनी हकीकत को परदे में रख, बातिल को मिटा दे और अपनी असलियत  जो रूहानी मोसिकी को नाज़ल कर दे

 

बातिनी लहजा-      खुदा का दीदार क्यों नहीं होता ? क्योंकि आदमी दुनिया के साज़ों-समान में मसरूफ़ रहता है और उसकी सारी तवजों हाल के ज़मानों मकान ( time and space) में होती  है बंदा रब की तरफ से तन्हा महसूस नहीं करता और उसकी याद से गाफिल रहता है इस लिए इंसान जो उसकी पाकीज़ा आवाज, मुकाम- हक से रही है-- जो उसका हुकम है या रज़ा है, रहमत है-- राज़दार होने के काबिल नहीं रहता अल्लाह के  “कुनया  परमात्मा की नादकी नियामतों से महरूम रहता है  यह आदमी की मजबूरी समझो या ना-समझी, पर संसार की गरिफ़्त इतनी मजबूत होती है कि बंदा सिर्फ तकलीफ में ही रब को फरयाद करता है  

जिस सरोद की आवाज या नगमे का जिक्र इकबाल ने किया है वोह सारी काएनात की creative, nurturing and dissolution power है इस्लाम में सूफियान ने  इसे आवाज--मुस्तकीम, कलाम --इलाही, बांग--असमानी की मीठी तरन्नुम (music of the spheres in  the Holy Bible) कहा है कबीर और गुरु नानक साहिब ने इसे शब्द धुन, अनहद बानी, सचा नाम या सतनाम कहा है

 

Mystical Understanding—Iqbal spoke in parables, just as Jesus preached in parables which are – "earthly stories with heavenly meanings". Jesus did so that his true disciples would comprehend his spiritual teachings and that unbelievers would be without comprehension. The music that Iqbal refers to is the audible life stream resonating in the cosmic Creation. Nevertheless, such a sound or music remains inaccessible to human sensitivity due to man's pre-occupation  with worldly matters.

 

In the first stanza, Iqbal refers to the formless God and its realization through the physical / astral form of murshid-e –Kamil. Then he is consciously praying for hearing the heavenly music, despite the Mind's intense infatuations with worldly matters.  Kabir sahib also speak about this music --  सुनता नहीं धुन की खबर को अनहद का बाजा बाजता॥ रसमंद मंदिर बाजता, बाहर सुने तो क्या हुआ॥ गुरबानी में कबीर साहिब का शब्द है -- पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥ (The Unstruck Melody of the Panch Shabad, the Five Primal Sounds, vibrates and resounds in the Lord.)                 

 

3) ELIMINATION OF THE DUALITY

 

तू बचा बचा के रख इसे तिरा आइना है वो आइना

कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में

शिकस्ता=broken, अज़ीज़-तर=dearer, निगाह-ए-आइना-साज़= in the eyes of the Maker of the mirror    

बाहरी लहजा ---वैसे आईना तो शक्ल देखने वाला शीश होता है पर इकबाल ने आईने को इंसानी दिल से तशबीह की है या compare किया है आईने में शक्ल को देखा जा सकता है और आदमी की अपनी  दूसरी तस्वीर नजर आती है ॥ यह दुई रूहानी सफर में नफी और नकारात्मक है ॥  कोई भी दूसरा खयाल, जैसे मेरा एक अलग वजूद है, अनह ,ego और तकुबर या खुद -परस्ती, बुत-परस्ती की जड़ है, जो कि तौहीद (oneness) या खुदा -परस्ती के सफर में रुकावट है अगर यह दिल रूपी आईना टूट जाए या खुद-परस्ती खत्म हो जाए, तब ही अल्लाह की वहदत का एहसास होगा  

 

बातिनी लहजाआईना और आईनों से-- जिस में एक शे दो या दो से ज़यादा भी हो सकती हैं-- का तालुक दिल से है॥  यह दुनिउआवी या दुई या  दूजा भाव है या duality की तफ़सील  है इकबाल कहते हैं खुदा के इश्क में तो मरकज यकसर (fully focussed attention) होना पड़ता है, अपनी जिस्मी और नफसी शीनाअस्त (physical and mental existence) को तर्क करना पड़ता है  ॥ खुद में ही खुदा आशकर होता है यानि खुद और खुदा में फरक को फ़ना करना ही self-realization या अहम- ब्रह्मअसी या तत- तवं- असी   या I and The Father are One  का एहसास है ॥ तभी असली खुद-मुखतारी या eternal freedom का अंदेशा हो सकता है ॥

लिबास- -मिज़ाजको देखने की  सोच पहले मिसरे में इकबाल ने दरज की  है दूसरा ख्याल उससरोद--साज़ यानि कुन की धुनसुनने की दुआ है॥ अब तीसरी सोच दुई , शिरक  या dualityजो आदमी की खुदा के बनिस्पत अलग हस्ती का झूठा एहसास दिलाती है, उसको नासत - -नबूत करने का हैखाक या फ़ना करने का है खुदी को राख करना, दिल का टूटना ही आईने के टूटने की ताबीर(interpretation) है

Mystical Understanding--The primary focus of Divine Realization is the annihilation of ego-self, which is the illusion and delusion created by the Mind. Nothing else but God exists is the only realization of the True Mystic. Bu-Ali-Qalandar का कलाम है अगर है शौक मिलने का तू हरदम लो लगता जा, जलाकर खुद-नमायी को भस्म तन पर लगाता जा पकड़कर इश्क का झाड़ू, सफा कर हुजर--दिल को, दुई की धूल को लेकर मुसले पर उड़ाता जा (if you are seeking the Lord—then light a wick of fire(in yourself) to extinguish the ego-self. Smear the body with the ashes of your ego. With the broom of Love, clean the vessel of your heart. Throw the dust of duality on the carpet on which you pray during Namaz.  

 

4

DILEMMA OF THE LOVER AND THE BELOVED

 

दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन

तिरी हिकायत-ए-सोज़ में मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में

 

दम= wings, तौफ़=circumambulation,   किरमक= moth, हिकायत=story,  सोज़= warmth, passion, हदीस-traditional, historical गुदाज=melted, soft,mild   

बाहरी लहजा पतंगे ने शमा के गिर्द घूमते हुए कहा कि न तो अब तेरी लो में इतनी गर्मी और हरारत का जनून है और न ही मेरी तड़प में ऐसी चाहत है की मैं तेरे इश्क की आग में फ़ना हो जाऊओं ॥ (The moth while in circumambulation around the candle’s flame mentions the lack of passion of love from the either side.)  इकबाल ने  इश्क की ऐसी तर्ज-ए-अदा या रमज़ की तफ़सील (या explain) की है जिसमे यह लाज़िम है की आशिक और मशूक की मुहबत तभी रंग लाती है जब की इश्क की आग या बेबसी दोनों तरफ से बेदार हो ॥

 

बातिनी लहजा--- शायद आशिक (मुरीद) को गलत फहमी रहती है की मशूक (खुदा) उसकी मुहबत को नजर-अंदाज (ignore) कर रहा है॥ खुदा और उसके पेगएम्बेर तो इश्क का मुजसम है॥  God is Love and Love is the law of God. असल में बंदा दुनिया में इतना मसरूफ़ है कि रब की इबादत की अनगहली करता है और अपनी जरूरत की इबादत को इश्क समझता है॥ कबीर साहिब कहते हैं--  लोगोन राम खिलौना जाना” --- रब को अनजान बचे के मानिंद समझते हैं, और मेरी ज़ाहरी या शरायात की  इबादत से अपने इश्क का दर्जा देते हैं। ऐसे इश्क का मुकाम बहुत निचला है, जो कि अल्लाह की बारगाह के कबूलियत के लायक नहीँ समझा जाता बाबा बुल्ले शाह ने रब्बी इश्क को आतिश आग बताया हैजिस में खुदी तबाह हो जाती है॥    

आतश इश्क़ फ़िराक तेरे ने, पल विच साड़ विखाइयाँ

एस इश्क़ दे साड़े कोलों, जग विच देआँ दुहाइयाँ

जिस तन लग्गे सो तन जाणे, दूजा कोई जाणे

इश्क़ असाँ नाल केही कीती, लोक मरेंदे ताअने।

(The pain of Love suffered in your separation is blazing like a blistering fire that has reduced me to worthless ash. Oh God, none in this world may experience such scorching torture.  Only the wearer knows where the shoe pinches. People taunt me for being in this terrible situation. )  

Mystical Understanding –

Iqbal has expressed dialogue between the moth and the flame negatively for endorsing that such lovers must dissolve themselves in the game of Love without wavering. 

The lover or the Ashiq dilemma is that he feels that love for his Beloved (Mashook) lacks. The Beloved is not oblivious of the fire of yearning of the seeker. But to intensify that fire into the inferno of Love, he pretends to ignore it. The burning of the flame is the pull of the Beloved, while the circumambulation of the moth is an attempt to burn or extinguish itself or FNAA itself. That is the process of merging into the Ultimate Reality or of non-duality. The concept of a lover or the perception of the Beloved does not survive.

5 SELF INTROSPECTION

कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली

मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में

अमाँ= peace, अफ़्व = forgiveness , नवाज़=gift

 

बाहरी लहजा- इन्सान जो अमल अपने ज़मीर और ईमान के खिलाफ करता है उसके नतीजे ज़िंदगी के सफर में परेशानी देते हैं और गमगीन करते हैं ॥ मन सकून और चैन खो देता है ॥ अपने ज़मीर की गफलत को इकबाल ने जुर्मों का दर्जा दिया है और फरमाते हैं -- रब्बा तेरी रहमो-करम के जरिए जब मुझे तेरी माफी मिली तब ही मेरी हयात में शांति का एहसास हुआ ॥ 

 

बातिनी लहजा-- ज़िंदगी की जदो जहद में हर कोई शकस पहले अपने कुनबे की रोटी, कपड़ा, मकान की ज़रूररत को पूरा करता है॥ फिर दोलत की कमायी/लालच दिल-ओ-दिमाग पर हावी होती है॥  उसके बाद आदमी को माशरे में इज्जत और मुकाम हासिल करने की लालसा होती है॥ इन सब जरूरतों की उलझन में वह बातिल( wrong means) का सहारा भी लेता है ॥ जैसे जैसे ज़िंदगी में सफलता या तरक्की  मिलती है उसके अहम, अहंकार, अनह में इज़ाफ़ा होता है॥ 

 

आखिर में नतीजा यह होता है कि जिस साजो- समान को बंदा अपनी हयात का  मरकज़-(focus)  बनाता है और फिर अपने आप को मुहाफ़िज़ (protected) समझता है  वोह सब इसके अजीयत और अज़ाब की वजह बन जाते है॥ मुस्तकबिल का फिक्र सताता है कि यह सब so called assets या माल या जादायदें  उसके हाथों से फिसल न जाए, खुस न जाए  या नुकसान न हो जाए, परिवार, खानदान और रिश्तों में झगड़े न हो जाए या सरकारी निजाम की मुदाखलत न हो जाए ॥ दुनिएवी फिक्र एक रंज-ओ-गम की बीमारी है बे-सकून कर देती है ॥  ॥  

 

खुदा की इबादत आदमी की आखिरी तवज्जो होती है॥ इन सब के  फिक्र-ओ-अज़ाब की वजह से इसका धयान रब की तरफ खिंचता है ॥ और मन से कुदरती तौर से फर्याद निकलती है और फिर उसकी याद मन का सहारा बनती है, जिस की वजह से हलकानी हालात से गुजरने में आसानियाँ पैदा होती हैं ॥ यह हर इंसान का ज़ाती तजुरबा है ॥

एक शयर है –जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करेजब ज़िंदगी की किश्ती जवानी में चल रही थी, खुदा की याद किस को आती है? और जब बुड़आपे में बंदे को गमों का अज़ाब आता है , तब खुदा की इबादत हो ही नहीं पाती—तो फिर मन को सकूँ कैसे मिले ॥    

Mystical understanding--- Human life is so made that man must suffer from good and bad actions or Karmas. In the process, the soul is compelled to reincarnate itself in the bodies in the cycle of 84. Even in the human body, called the top of the Creation or Ashraf ul makhluqat (अशरफ उल मखलुकात), it is forced to act and reap the consequences of the actions committed in the past, present and then in the future. Imperativeness is attaining "freedom from (doing) any action" rather than the "freedom of action" or the "freedom to act". That is feasible only when salvation is blessed by attuning with Klaam-e-Elahi or Ism-e-Azam or the Shabad through the intermediation of इश्क with the Murshid-e-Kamil or Sant Satguru. That is the natural gift of forgiveness of eternal peace and bliss.           

      

  6       ON LOVE—ISHQ

वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ

वो ग़ज़नवी में तड़प रही वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं 

 ग़ज़नवी= Mahmud Gznavi  ख़म= curly hair, -अयाज़=very dear minister of Gznavi

 

बाहरी लहजाआज के वक्त में इश्क मजाज़ी के जज़्बातों में जनून, बेताबी, बिरह की तड़प नहीं, और ही हुस्न की खूबसूरती देख कर बेचेनी एयाँ होती हैजैसे कि पहले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी और उनके अज़ीज़ वज़ीर अयाज़ आपस में महसूस करते थे॥ गज़नवी, अयाज़ के बालों की ज़ुल्फ़ों की तरीफ़ कर के अपनी मुहबत जाहिर किया करते थे॥

 

कहानी –  बादशाह महमूद गजनवी और उसके वज़ीर अयाज़ की

 

गज़नवी को अपने वज़ीर अयाज़ को शदीद पसंद करते थे जैसे कि एक दूसरे से मुहबत का इसरार हो  जिस कि वजह से दूसरे वज़ीर अयाज़ से हसद (jealousy)  करते थे। गज़नवी इस हसद से वाकिफ था एक दिन ग़ज़नवी ने ऐलान किया कि मेरे महल में जिस चीज पर कोई भी वज़ीर हाथ रख देगा, वोह बिना  दाम उसकी हो जाएगी॥ अगले दिन सारे आला वज़ीर सुबह से के अपनी अपनी पसंद दीदा सामान पर हाथ रख  दिया जब कि अयाज़ ने किसी शे को छुहा भी नहीं गज़नवी ने अयाज़ को इंतखाब करने के लिए कहा तो, अयाज़ ने गज़नवी कि कंधे पर हाथ रख दिया॥ मतलब मेरा बादशाह ही मेरी दौलत हैऔर इस वजह से सारी कीमती चीजों का मैं ही हकदार हूँ नुक्ता नज़र यह है की अगर अल्लाह ताला को मैं अपना बना लूँ , तो फिर मेरे को कायनात की कोई शे गवारा नहीं है

 

बातिनी लहजाजितने भी संसार के झगड़े हैंवोह आदमी के मन की पाँच खामियों यानि --  काम (हवसक्रोध (गुस्सा) ,लोभ (लालच) , मोह (लगाव),अहंकार (तुकबर) की वजह से पैदा होती है॥ हक़ीक़ी इश्क इन सब नफसी कमजोरियों को नफी और फ़ना करता है इसकी तशबीह (metaphor) सूफियान खयाल में ऐसी की गई हैअगर एक जंगल को साफ करना होतो इसकी सफ़ायी करना -मुमकिन है अगर जंगल को आग लगा दी जाए तभी वोह साफ हो सकता हैयानि इंसान कि कमजोरियों और खवाइशत जो जंगल की झाड़ियों के मानिंद हैं, और इनको सिर्फ इश्क हक़ीक़ी की आग से भस्म और खाक किया जा सकता है  

Mystical understanding ---Love and Allah are synonyms. Through true Love duality ends, Oneness with God is attained. Love can only be experienced and cannot be compressed in any verbal explanation. The concept of Ishq encompasses the entire Creation. Jesus said—" Love thy neighbor as thyself." The perception of neighbor is all that is seen and unseen domains and not merely immediate surroundings. Ishq or Love is the symbolism of the Ultimate Reality, beyond the realm of Mind and Maya and not of any physicality. Sufi Ghulam Farid says --

जिस दिल विच प्यार दी रमज़ नहीं,ओह दिल बस तू वीरान समझ॥

जो दिल प्यार सुजान नहीं,ओह बंदे तूं नादन समझ॥

इस प्यार दी खातिर अरश बने, इस प्यार दी खातिर फरश बने॥

एहो प्यार रब मिला देंदा, सुते लेख नसीब जग देंदा॥

जिस दिल जो प्यार दे डेरे ने, ओह दिल तू बस इरफ़ान समझ॥

The heart devoid of Love is a desecrated island. Ignorant are those who fail to understand the concept of Divine Love. The vastness of the skies and the earth—the cosmic existence -- are meant to imbibe (for man) that unadulterated Love. Such a Love gives awareness of the Divine and blesses eternal life. The heart full of such Love belongs to the Enlightened One---- Ghulam Farid

    

7

THE GAME OF MIND

 

मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा

तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में 

सर-ब-सज्दा =Head bowed in prostration,  सदा= advice in the form of voice, सनम-आश्ना= devoted to the material word, idol worshipper, नमाज़= devotion ibadat

 

बाहरी लहजाजब मेने नमाज़ के लिए सजदे में सिर झुकाया तब ज़मीन, (या मेरे ज़मीर) से आवाज आयी कि असल में मेरी पूजा, इबादत तो दुनियावी खाविषों या बुत- पूजा यानि अपनी जिसमानी जरूरतों के लिए है, कि खुदा के दीदार के लिए इस लिए बातिल के सजदों से हकीकत आशकर नहीं होगी ओर ही उस केलिबास --मिज़ाजकी हसरत पूरी होगी  

बातिनी लहजा--मन जब दुनिया परस्त होता है तो शैतान का काम करता है ॥ मन जब खुदा--परस्त हो कर इश्क-ओ-इबादत करता है तो यह रहमान के नजदीक होता है ॥ इंसान को यह फैसला करना है कि मन ने किस तरह का सौदा करना है ॥ दीन से मुब्तला होना है या दुनिया का खादिम बन कर रहना है ॥

इकबाल ने मन की कमजोरी की बहुत खुल कर तफ़सील की है कि ---- यह बातिनी तौर पर माशरे की शोहरत चाहता है पर ज़ाहिरी दिखावे के लिए अल्लाह के दीदार की तमन्ना करता है ॥ यह दोनों हसरतें के दूसरे से मुक़तलिफ़ हैं और दोनों पूरी नहीं हो सकती ॥ बेहतर यही है आदमी फ़ानी समान-ओ-सोच का तर्क करे और हकीकत का खाइशमंद हो॥

 

Mystical Understanding--

 

What is Mind? The mystical explanation is -- Mind by Divine Design is meant to engage human beings in this Creation and draws its power from the soul. The soul always craves to experience Oneness with the Lord.  Gurbani explains   ---- इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥इहु मनु पंच ततु ते जनमा ॥साकतु लोभी इहु मनु मूड़ा ॥गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा..The Mind engages in Karma(rituals) and also in righteous living.  This Mind evolves with the experience of sensory organs of five elements and does all foolish, perverted, greedy, materialistic deeds. However, by contemplation on the Shabad of the Guru, it becomes lovable (pure or Divine Oriented). Kabir sahib says माया मारी मन मरा, मर मर गए शरीर, आशा तृष्णा ना मारी कह गए दास कबीर Mind has to struggle to change its direction and attention from centrifugal engagements in the world to the centripetal axis of the Divine. Otherwise, the cycle of 84 continues.  

 

Baba Bulleh Shah says –बुल्ले नू लोक मत्ती देंदें, बुलहया जा तू बह मसीती, विच मसीती की कुझ हुँदा, जे दिलों नमाज़ कीती If the heart or mind’s focus is away from the Lord, visiting religious places is of no avail. Whosoever cannot find a temple in his heart; he can never find his heart in any temple. Loving the Lord does not require speech or words but Love or Ishq only. (आशिक पड़न नमाज़ प्रेम दी ,जे विच हरफ कोयी हूHazrat Sultan Bahu)  

     

Jesus said—"For where your treasure is, there your heart will also be".  Should the Mind believe that Divine remembrance is the real eternal wealth, it will automatically get detached from the tinsel and trash of transitory treasures of the world.

 

 

ON PAGE 526 OF SRI GURU GRANTH SAHIB—the cause and effect of the Mind's attention during the last moment of life is detailed. Those interested can open the link and get an idea of the possible process of reincarnation.

 

 

https://docs.google.com/document/d/1Xl7U7s-ozJIzT1IpW9jOq8VPxBFjN7fkwszDwhjiTRM/edit?usp=sharing

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