शरिया और इश्क
इन्सानी फितरत इतनी कमज़ोर है कि यह शरिया की शिकार बहुत जल्दी हो जाती
है // इस वजह से इंसान की इबादत रूहानियत से दूर चली जाती है// हयात (जिंदगी
का सफर) से निजात पाने का रास्ता रूहानियत में है –शरिया तो इस
जिंदगी और आने वाली जिंदगी के मसले को और पेच्चीदा बना देती है//
एक शायर लिखता है “मौत क्या एक लफ़्ज़-ए-बे-मानी, जिस को मारा हयात ने मारा”(–मतलब ‘जिंदगी की परेशानी आदमी
की असली तकलीफ है, पर मौत का नाम तो ऐसे ही बदनाम है’)
शरिया क्यों हावी हो जाती है? इस की वजह-- हमारा
माशरा भी है, मां-बाप की तर्बीयत, आलमी
लोगों की सोहबत और दबाव (अपनी पैरोकारी बढाने के लिए) और मज़हबी किताबों का
गलत तर्जुम्मा करना //
जब तक शरिया तरक नहीं हो जाती और मुरीद, मुस्र्शिद के बताये
तरीकात पर अमल करके खुदाई इश्क के रास्ते पर नहीं चलता, हयाते
सफर से छुटकारा नहीं मिल सकता// वारिस शाह इश्क के बारे कहता हैं – असली मर्द वही है जिसने इश्क की दर्द को सहा है और उसने ही खुदा की रहमत
से हयात से निजात पा ली //
अव्वल हमद ख़ुदाय दा
विरद कीजे, इशक कीता सू जग्ग दा मूल मियां ।
पहले आप है रब ने इशक कीता, माशूक है नबी
रसूल मियां ।
इशक पीर फ़कीर दा मरतबा है, मरद इशक दा
भला रंजूल मियां ।
खिले तिन्हां दे बाग़ कलूब अन्दर, जिन्हां
कीता है इशक कबूल मियां ।
(अव्वल=सभ
तों पहलां, हमद=सिफत, विरद=सिमरन,ज़िकर, मूल=जड़्ह,
बुन्याद, नबी रसूल=हज़रत मुहंमद साहब, रंजूल=रंजूर,ग़मनाक,
मरतबा=पदवी, कलूब=दिल, बाग=दरवाज़ा;)
शरिया और इश्क (part 2)
शरिया और इश्क में बहुत फर्क है//
हजूर महाराज जी शरिया को “म्यान”, और इश्क को रूहानियत की “तलवार” कह कर समझाया करते थे//काम तलवार ने आना
है न कि म्यान ने // इश्क इन्सानी हस्ती को नासतो -न-बूद करता है, शरीअत इन्सानी
वजूद की मस्ती में मुब्तला(फंसी) रहती है //शैरिअत आँखों वाली हो कर भी अंधी है,
पर इश्क अँधा होता हुआ भी उसकी बीनाई काबिले तारीफ़ है क्योंकि इश्क में नुखस देखने
की ताकत मौजूद नहीं है //
शरिया का ताल्लुक मज़हबी है और इश्क बेमज़हबी// शरिया दिखावे और दुनिया की शोकीन
है, इश्क एक ज़हीन परदे में रहता है// शरिया, आलम और फाज़ल लोगों की जागीर है, पर इश्क
अरीफीन के एक हर्फ़ (अलिफ़-अल्लाह) में
लामह्दूद है// शरीअत मज़हबी किताबों की सोहबत करती
है और इश्क “मुर्शिद- ऐ- कामिल” या “अपने सुल्तान –उल- अरीफीन” के ख्याल में गुम सुम है// शरिया खुदी को बुलुंद
करती है, जब कि इश्क खुदी को मिटाता है //
शरिया में बाहरी पहरावे की जरूरत है, इश्क अपने आप में ज़ीनत है//
इश्क में खुदा का खोफ, मुहब्बत के शौक की निशानी है // शरिया माशरे से खौफ
ज़दा है// इश्क में खुदा का इस्त्कबाल ज़िक्री, फिकरी, बातीनी या अंदरूनी है और शरिया में खुदाई इस्तकबाल बाहरी, ज़ाहिरी
और नफल नमाज़ी है—(आज़ान,घड़ियाल,कीरतन,जप-तप,पूजा-पाठ, रोज़ा-व्रत, वजू-इसनान - वगेरा
//) इश्क में दिल के दर्द की पीड़,आँखों में आंसू, विरह की तनहाई और हिजर की तड़प है
// शरिया दुनयावी शुहरत में महफूज़ रहती है//
इश्क की बंदगी “खुदाई रज़ा” में खुश और राज़ी रहना है, जब की, शरिया की बंदगी
“अपनी रज़ा” में राज़ी रहना// इश्क “हर मंजर” ख़ुशी से शादमान है –चाहे दुनिवी या रूहानी, और शरीअत “न्फ्से-इज्ज़त”
को पसंद करती है//
इश्क खुद को “कुर्बान” करता है, पर शरीअत महज़ब के नाम पर “क़ुरबानी” लेती है
// इश्क में इखलाक, सदाकत, रहम, मुहब्बत, खलूस, वहदत है// शरिया “पाक रूहानियत” पर
जाबर जैसा जुलुम करती है और इन्सानी माशरे को आपस में बाँटती है//
मनसूर , ईसा, शम्ज़ ,रूमी, सरमद, गुरु अर्जन, गुरु तेग बहादुर,--सब अनल- हक
के इश्क की वजह से शरिया की देहलीज पर कुर्बान हो गये, अमर हो गाये, लासानी और
लाफ़ानी हो गये//
इश्क आबे हयात है और शरिया हेरान है//
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