कुछ लफ़्ज़ रुहानीयत पर
हर रूह या आतमा अपने असल को पेहचनाने की चह्वान होती है॥ इसको “हुबल वतनी” – the yearning for the Real
Abode of the Truth भी कहा गया है ॥
इंसान अपनी ज़िंदगी में अलग अलग तरीक़ात से इस जदो-जहद में लगा रहता है और कभी
कभी पशेमान भी हो जाता है ॥ एक तरीका यह है आदमी पर्मातामा यानि खुदा की इबादत में
मसरूफ़ रहे और अपने अमलों को बेहतर करने पर तवजो दे॥
क्या सिर्फ अछे कर्म या अमल उस पेरमेशवर या अल्लाह की इबादत या पूजा के
लिए काफी नहीँ हैं, जिस से
कि हम उसका दीदार कर सकें या पहचान कर सकें॥ यह रास्ता भी आज़माया जा सकता है, और इस से हमें
अपने किरदार को नेक बनाते हैं और पर्मातामा की खुशी पराप्ती होती है॥
दूसरी सोच यह है नेकी के साथ, उस खुदा की असली इबादत उससे मुहबत करने से
होती है// इस मुहबत को भक्ति या याद या समरण के जरिया से हासिल किया जा सकता है// कहा जाता
है you become what you love as the love eliminates the distinction
between the lover and the Beloved.
इसको सूफियान अंदाज में “इश्क हकीकी” माना जाता
है जिस में मशूक और आशक एक हो जाते हैं ॥ मोहबत को माशूक की दात माना जाता है और
नज़ारा या मंज़र यह है कि आशक सोचता है वोह महबूब मोह की मुहबत में मुबतिल यानि मस्त
है॥ (Love is the gift of the
Beloved and not that of the lover.)
दुनियावी इश्क को “इश्क मिजाजी” कहा जाता है जो कि वाकयात और वक्त से बदलता
रहता है॥ जब कि इश्क हकीकी बड़ता जाता है और विरह में बदल जाता है// जब मन और जिस्म
के हालत खुदा के विरह से एक जनून की सोच
बन जाती है और फिर पेरमेश्वर अपनी “कबूलियत” बख्श देता है तो
इंसानी जामे को दुनिया में आने का काम पूरा हो जाता है//
रूह, “हक” यानि हकीकत, या सच, में फ़ना हो जाती है अद्वैत भाव या तवहीद की समझ
आ जाती है ॥The duality ends and
experience of the Union is attained as if there was never a separation.
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