YAAR KO HUM
NE JA-B-JA DEKHA –KLAAM
HAZRAT SHAH NIAZ
यार को हम ने
जा-ब-जा देखा
कहीं ज़ाहिर कहीं
छुपा देखा
यह सूफियानी कलाम
मजीद
गहराई का तुसवर करता है जिसमे एक आरिफ़ के अंदरूनी रूहानी तुजरबे और बाहरी कएफीयत
की बात की जा रही है॥
खुदा, जो कि लासानी और लाफनी है, अहद है, ला -इंताह है-- कभी भी इंसान के वजूद की आँखों की बिनाई से देखा
नहीं जा सकता॥ रब का राज़, उसकी रज़ा, मौज और हुकम के बिना फ़ाश नहीँ हो
सकता ॥ रब का वजूद, कारनामे , उसका कारखाना इंसान की अक्ल के अंदाज और तसुवर में नहीं आ
सकता॥ यह एक बातिनी (inner) और इलहामी (intuitive)तजुरबा है जो कि रूह की उड़ान से होता
है,जब वोह मन और माया के दायरे से ऊपर जाती है॥
रब अपना नूरी रूप, स्वरूप, जलवा और जलाल वक्त के पीरों, पगएम्बारों,
मुरशिद-कामिलों , संत-सतगुरों के जरिए जाहिर करता है जो कि खुद खुदा के साकार
मुजसम होते हैं उसका ज़हूर होते हैं ॥ अल्लाह पाक का इल्म, उसके असरार, खूबियाँ,
खुसियात, रूहनीयत, दीन और दुनिया की तफ़सील भी पीरों-पगएम्बारों के जरिए ही नाज़िल
हुई है॥ कबीर साहिब कहते हैं—
अल्लाह अवल न जाए लखया गुर गुड़ दीना मीठा॥
कह कबीर मेरी संसा नासी सरब निरंजन डीठा॥
गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं –
ज्ञान अंजन गुर दिया अज्ञान अंधेर बिनास ,
हर कृपा ते संत भेटया, नानक मन परगास॥
एक सूफ़ी आदिब को जब तुआसवफ के सफर में खुदा की रहमत से रुहनीयत का असर होता है, वोह
खुशी और बेकरारी जाहिर करता है -- “यार को हम ने जा-ब-जा देखा” इस को समझने के लिए
यहाँ पर शेरियात, तरीकत, मार्फत और हकीकत की तफ़सील करनी पड़ेगी ॥
शेरियात-- अमूमन आबिद या ज़ाहिद,मजहब या धरमों में अक़ीदत रखने वाले (sincere followers or ascetics or renunciates) ---यह
सब शेरियात का रास्ता इख्तियार करते हैं जिसकी तालीम मौलवी या मौलना, पंडित,
ग्रंथी देते हैं॥ उनकी तालीम कुरान, वेद,
बाइबल, तोरत, गीता, ग्रन्थ साहिब जैसे मुकदस किताबी ज्ञान, पड़ने-पड़ाने पर मुनसर होता है ॥ कुछ तो आलम, फ़ाज़ल और हाफ़िज़
बन जाते हैं और अपने ऊममा या मानने वालों
को रब से डरने और डराने का सबक पड़ाते हैं॥
शेरियात में कलब से बातीनी इश्क-ओ-इबादत का ज़्यादा जिक्र
नहीं होता, वहदत-उल-वजूद को कैसे नाज़ल करना है का भी राज नहीं बताया जाता॥ मुकदस
किताबी ज्ञान से तुकबर आ जाता है ॥ बातिनी हिरसों हवस भी कम नहीं होती ॥ जब आदमी अपनी अनह के घोड़े पर सवार हो जाता है वोह चलता तो बहुत है
पर कहीं पहुंचता नहीं। सबसे ज्यादा अनह तो महजब के रहनुमयों में ही होती है—तो आप समझ
सकते हैं कि उनके मुरीद कैसे होंगे ॥ कबीर साहिब कहते हैं जब जरूरत से जयादा से किसी
तरह की दौलत आ जाए तो इसको बाँट देना चाहीये –
नाव में बाड़ों
पानीया, घर में बाड़ों दाम
दोनों हाथ उलीछईये,
यही सियानों काम ॥
तरीकत-- “हम ने
जा-ब-जा देखा” को समझने के लिए आबिद या मुरीद को शेरियात से आगे जाना पड़ेगा ॥ तुआसवफ
में इस को “तरीकत” कह कर समझाया गया है॥ तरीकत के मुताबिक मुकाम-ए- हक का मुकदस बातीनी
सफर करने के लिए पुरज़ोर चाहत,कशिश और तमना होनी चाहीये॥ मन के अंदर हलीमी,
और दुनिया से तोबा की चाह होनी चाहीये, फकीरी जूफतजु का एहसास और रबी जज्बा होना
जरूरी है ॥अल्लाह के फज़ल-ओ- करम से मुरीद के ऊपर वक्त के मुरशिद की कबूलियत चाहीये
और मुरशिद के बताए गये रास्ते के मुताबिक ज़िंदगी बसर करने का शौक होन जरूरी है॥
तरिकत के अनासर और असूल कुछ इस तरह के हैं
हज़रत सुल्तान बाहू का कलाम है—
अवल अल्लाह चमबे
दी बूटी मुरशिद मन विच लांदा हू ॥
जिस गत सोहना राज़ी
होवे सोयी गल समझअंदा हू ॥
My master sows the seed of realizing the God in my mind. He makes me
understand how to be compliant with the will of the Lord.
हज़रत बु अली कलंदर कहते है –
मुसल्ला छोड़, तसबी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त
मुर्शिद का, गुलाम
उनका कहाता जा।
Leave aside the carpet of namaz, break the string
of beads and drown scriptures in water. Instead, clutch the hand of Master Murshid
and take pride in being His slave.
न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का
तोड़ दे कूजा, शराबे शौक पीता जा।
Don’t trouble yourself
with starving or holy fasting, nor go to Masjid for prayers or rub your head on
the floor. Break the water vessel of Vaju, meant to clean your body before
namaz, and be the drinker of the wine of Love.
न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे
कलंदर का, अनल हक
तू कहाता जा।
Be not a Maulvi or Brahmin, get rid of duality and
devote to Oneness. Says Bu-Ali Kalandar—I speak of that Divine ordinance
through which you will experience self- realization that “I am that very
Truth”
मार्फत --इसके बाद मार्फत का सफर शुरू होता है जिसमे जिक्र,
मुरक्बा, ग़ौर-ओ-फिक्र या मह-वे-ख्याल ( absorbed in thoughts) से अल्लाह की इबादत, हक हलाल कि कमायी, नेक
ज़िंदगी बसर करते हुए, इखलाकी अमल, सब्र और अक़ीदत,भरोसे से अपने आप को अदब और तहज़ीब
में रहना पड़ता है ॥ इसका असर और असरार यह होता है कि नफ़सानी अनाह कमजोर होती है, मन
निमाना होता है, पाँच विकोरों (perversions of mind), और उनकी
गुमराही की पकड़ बहुत कमज़ोर हो जाती है,रूह से गलाजत के गिलाफ उतर जाते हैं और रूह
को रब के लिशकारे नाज़ल होते है, रबी प्रेम और इश्क, विरह में तब्दील हो जाता है ॥
इनसानी अपने आँदूरणी वजूद में रब की झलक का नजारा लेती है जो की रूह और मन को
दुनियावी मोह माया से अलग या मुखतलिफ़ करते है ॥ खुदा के नूर से मुरीद रबी हस्ती से
वाकिफ हो जाता है।
रुहनीयत का
हल्का सा एहसास होने लगता है और मालिक की जूफतजु की प्यास बड़ने लगती है ॥ फिर यह
प्यास आबे-हयात के पानी को पीने का जोर मारती है और रूह जाती ज़िंदगी से निजात पाना
चाहती है जिसको बिरह कह कर तफ़सील किया गया है॥ बाबा फरीद कहते है
बिरह बिरह आखीए बिरह तू सुल्तान ॥
जिस तन बिरह न उपजे सो तन जान मसान ॥
यह “बिरह” बातिनी तोर से मन और रूह की खुदा से विसाल करने
की तड़प है ॥ नूर-ए अज़ल या वहदत- उल -वजूद का दीदार करनी चाहती है॥ जब ऐसे दीदार
की एक झलक मुमकिन हो जाती है तब बहारली काएनत में भी खुदा का नूर हर शे में नजर
आने लगता है ॥
तभी तो बाबा बुल्ले
शाह कहते हैं--
ओह शोह असां तों वख नहीं
ओह शोह तों बाजहों खक नहीं
पर देखन वाली अख नहीं
तां जान जुदीईयां सेहंदी है
संत चतुर दास जी
का ज़ाती तुजर्बा है ---
सजन अखियाँ विच है वसदा पर अखाअं देख ना सकन
सजन हथआँ विच है वसदा पर हथ पकड़ न सकन
सजन जीबहा विच है वसदा पर जीब स्वाद न दसन
चतुर दास ओह स्वाद की जो जनन जो मिस्री न चखन
(पर अनल हक और मुकमे हक की हकीकत के एहसास को
नाज़ल या आशकर होने के लिए मुरीद को रब की रहमत और कबूलियत के लिए सबरो-रज़ा और
मालिक की मौज का इंतजार करना पड़ता है ॥)
इस लिए इस शायर का
तुजर्बा मेरी समझ के मुताबिक मार्फत तक का ही समझा जा सकता है ॥ इसके बाद सारे
कलाम को समझना आसान हो जाता है ॥जब बातिनी दीदार की सिर्फ एक झलक ही पड़ती है, तो
बाहर हर ज़रे में उसका जलवा नजर आता है॥ अब आगे के अशरार में जो “शाह नियाज़” जी जो,
बाहरी दुनिया में एहसास कर रहे हैं,उनकी तफ़सील
करते हैं --
कहीं मुमकिन हुआ कहीं वाजिब
कहीं फ़ानी कहीं बक़ा देखा
God sometimes appeared to me as a possibility and sometimes
as the Ultimate Reality. Sometimes he is seen ephemerally and while also at the
Eternal
दीद अपने की थी उसे ख़्वाहिश
आप को हर तरह बना देखा
He desired to be manifested and seen. And therefore
created infinite diversity.
सूरत-ए-गुल में खिल-खिला के हँसा
शक्ल-ए-बुलबुल में चहचहा देखा
He was seen laughing gleefully in the flowers. He was
seen chirping and crooning like songbird in the nightingales
शम्अ' हो कर के और परवाना
आप को आप में जला देखा
He appeared as the flame of a candle and the moth both,
to see His self-extermination.
कर के दा'वा कहीं अनल-हक़ का
बर-सर-ए-दार वो खिंचा देखा
He endorsed Himself to be the Eternal Truth, but
yet got his head hanged on the Cross( ref-to Jesus)
था वो बरतर शुमा-ओ-मा से नियाज़
फिर वही अब शुमा-ओ-मा देखा
Oh, Niyaaz, he was beyond the duality of You and Me, but
I see His existence as You and Me.
कहीं है बादशाह-ए-तख़्त-नशीं
कहीं कासा लिए गदा देखा
At times, God manifested as kings/ emperors on the
throne. Then he also appeared as a beggar with a begging bowl.
कहीं आबिद बना कहीं ज़ाहिद
कहीं रिंदों का पेशवा देखा
At times, He is a devout devotee of the Lord or an
ascetic, yet also a prime drunkard.
कहीं वो दर-लिबास-ए-मा'शूक़ाँ
बर-सर-ए-नाज़ और अदा देखा
At times, He appeared in the attire of a beloved, seen
throwing his captivating charms.
कहीं आशिक़ 'नियाज़' की सूरत
सीना-ए-बिरयाँ ओ दिल-जला देखा.
He was also seen as lover like “Niyaz”, beating his
breast and heart in desperation.
Beautiful explanation of the manifestation of Supreme Power. So true. HE desired to be manifested so HE created diversity.
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