Friday, October 21, 2022

GURBANI PAGE 747 (करम धरम पाखंड जो दीसहि)

 


GURBANI PAGE 747 (करम धरम पाखंड जो दीसहि)

 

करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै ॥

निरबाण कीरतनु गावहु करते का निमख सिमरत जितु छूटै ॥१॥

संतहु सागरु पारि उतरीऐ ॥.

जे को बचनु कमावै संतन का सो गुर परसादी तरीऐ ॥१॥ रहाउ

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इस काएनत के सिर्जनहार या मालिक या खुदा की तलाश में अमूमन बहुत से बंदे सदियों से कोशिश कर रहे हैं ,कि वोह कहाँ है,कैसा है,उसका पता क्या है,उसकी शक्ल सूरत कैसी है, कैसे उस से विसाल हो सकता है॥ कैसे उसकी पहचान हो सकती है॥ अलामा इकबाल जिनको रूहानी दानिशमंद और सूफियाना शायर समझा जाता है, कहते है –कभी ऐ हकीकत-ए मुंतज़िर नजर आ लिबास-ए मिज़ाज में॥ मिर्जा ग़ालिब कहते है –यह न थी हमारी किस्मत की विसाले यार होता, अगर और जीते रहते तो याहि इंतजार होता ॥

 

सतगुरुओं और सूफियानों का यह ताकीद है कि आदमी की औकात है हि नहीं है वोह खुदा के जमाल और जलाल को मन बुद्धि या अकल के होशो हवास में जाहिर रूप से इन आँखों से  देख ले॥ किसी शायर ने कहा है – ऐ हुसन हकीकी नूर-ए अजल तुझे वाजिब या इमकान कहूँ॥ मतलब कि ओह खुदा तू हकीकत है या मेरे ज़हन का खाब/अंदाज तो नहीं?

 

हज़रत मूसा भी खुदा के दीदार के लिए परेशान रहे ॥ कहा जाता है खुदा ने उनको जवाब दिया कि मूसा तो मेरे को बाहरी या जाहरी नजर से देख नहीं सकता॥ जब हज़रत मूसा ने खुदा को देखने के लिए जब मजबूर किया तो अल्लाह ने कहा तूर की पहाड़ी पर आ जा ॥ जब अल्लाह ने अपना नूरी जमाल का लिशकारा कुछ लम्हों  के लिए तूर कि पहाड़ी पर दिखाया  तो मूसा  बेहोश हो गये। खुदा लासानी लाफनी, लाबायनी है,कायम , करीम, करामात  वहीद- ला- शरीक है॥ गुरु नानक साहिब जप जी में कहते हैं ---“नानक कथना करड़ा सार॥“  पर खुदा का दीदार कामिल मुरशिद के फज़ल- ओ- करम से ही किया जा सकता है जिसका जिक्र आगे होगा ॥         

 

बहुत से लोग तो यह मान कर चलते है कि मालिक का कोयी वजूद है हि नहीं और यह कायनात अपने आप चल रही है और उस खुदा, परमात्मा, राम, वाहेगुरु, God की तलाश बे-मायने की कारवाही या धंधा है ॥ ऐसे लोगों का सवाल है कि परमात्मा को किस ने बनाया॥ खुदा के माँ -बाप की तलाश करते रहते हैं॥  क्योंकि बनानेवाले का पता नहीं ,इसलिए मालिक के वजूद का दावा नहीं किया जा सकता । उनकी दलील इस वजह से भी खारिज की जा सकती है कि हम को अपनी अक्ल को पैदा करने वाले का पता नहीं, तो अक्ल क्या है कि नहीं, कहाँ से आती है ?॥ यह argument कि जिस शे का पता नहीं है, उस की हस्ती है ही नहीं है, एक अहमकाना सोच और हरकत है ॥ इस में दलील या तर्क पूरी तरह से वाजिब नहीं है। सूरज की आग कहाँ से आती है ?? जमीन गर्दिश में क्यों है ? जमीन कैसे खड़ी है ? समुंदर का पानी कहाँ से आता है ॥ आसमान कैसे बना है ?? इंसान पैदा क्यों होता है और मरता क्यों है?? लाखों सवाल ऐसे हैं जो लाजवाब हैं। अगर इनका जवाब है भी तो हम अपनी अक्ल ओर ज़हन से तफ़सील नहीं कर सकते ॥   

गुरबानी में गुरु नानक साहिब ने अपना बातिनी तजरुबा से खुदा के बारे बताया --

आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचिओ नाउ ॥

He Himself created Himself; He Himself assumed His Name.

दुयी कुदरति साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ ॥

Secondly, He fashioned the creation; seated within the creation, He beholds it with delight.   

इस को समझने के लिए रूहानी शूर चाहीये ॥ जो सिर्फ संत सतगुरु या सूफियान बातिनी सफर-ओ-एहसास कर के बता सकते हैं॥ जब तक एक इंसान भी बातिनी सफर न कर ले तब तक वोह खुदा की हस्ती और हकीकत को समझ नहीं सकता  ॥ मालिक ने अपनी मौज में हर इंसान में फरक और इखतलाफ़ी(diversity) रखी है, पर वोह लोग मुबारक हैं जिनको खुदा ने अपनी बारगाह में आने की रहमत करता है और कबूलियत फरमाता है ॥            

 

कुछ बाशर खुदा को  पहाड़ों , तीर्थों , मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारों, पुराने संतों--पीरों की दरघाओं या सुनसान,बियाबान जंगलों में ढूंढते हैं ॥ तरह तरह के पहरावे डालते हैं और योगी बन जाते हैं ॥

जोगु न खिंथा जोगु न डंडै जोगु न भसम चड़ाईऐ ॥.

Yoga is not the patched coat, Yoga is not the walking stick. Yoga is not smearing the body with ashes.

जोगु न मुंदी मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंङी वाईऐ

Yoga is not the ear-rings, and not the shaven head. Yoga is not the blowing of the horn.

अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥१॥|

Remaining unblemished in the midst of the filth of the world - this is the way to attain Yoga. ||1||

सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ ॥

Sagur betai ṯā sahsā ṯūtai ḏẖāva varaj rahā▫ī▫ai.

Meeting with the True Guru, doubt is dispelled, and the wandering mind is restrained

 केई और लोगों की सोच उनको नेक और अछे कर्म और धर्म में मुब्तला (involved) रखती है, वोह मुकदस किताबों को पड़ते हैं और उनकी पूजा करते हैं॥  ऐसे इंसान अपनी आखरीयत में विश्वास और अक़ीदत  रखते है और जन्नत में खुदा के विसाल की तमन्ना करते हैं॥

हज़रत सुल्तान बाहु कहते हैं –

एह तन रब सचे द हुजरा, विच पा फ़क़ीरा झाती हू ..

मरण थी अगे मर रहे, जिनहाँ हक दी रमज़ पछाती हू ॥

कुछ लोग शरीयत के कर्म कांड को छोड़ कर सची रूहनीयत के राह में अपनी अक़ीदत (विश्वास) या भरोसा करके मालिक से विसाल की तमन्ना रखते है और वक्त के शब्द- अभआसी कामिल मुरशिद के मुरीद बन कर जिक्र और फिक्र करते हैं, तसुवर और रियाज़त करते हैं, मालिक की रज़ा और हुकम में अपनी ज़िंदगी बसर करते हैं, हक हलाल कि कमायी पर ज़िंदगी बसर करते हैं ॥ दुनिया से तोबा कर लेते हैं जिस को die to live भी कहा गया है ॥  

 

संत सतगुरु उपदेश करते हैं कि बाहरली पूजा या इबादत (यानि शरीयत) और   रूहानियत में बहुत फर्क है॥  शरीयत मजहबी रीति रिवाजों और कर्मकांड को कहा गया है॥ गुरबानी में इसको मन मुख्ता बताया गया है ॥ असली रुहानियत वोह है, जिसमे खुदा की इश्क-ओ-इबादत-- इंसान मन और रूह से वक्त के कामिल मुरशिद की हिदायत से  करे ॥ इसको गुरबानी में गुरमुख्ता कहा गया है॥    

 

इस शब्द में गुरु साहब ने बाहर के रीति-रिवाजों  का खंडन किया है करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै-- और कहा है कि खुदा, जो आदमी के वजूद में मजूद है--- वोह  बाहरी रस्मों रिवाज या मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजे, तीर्थ, रोज़े, मुकदस कितबों या ग्रंथों और उपवास से आशकर नहीं हो सकता या उसको समझा नहीं जा सकता ॥ अगर अच्छे कर्म भी हो यमराज उनका फल बेहतर अवस्था में देकर वापिस इसी 84 की जेल में भेज देता है ॥  कबीर साहिब कहते हैं “न मैं तीर्थ न मैं मूर्त न मैं काबे कैलाश मैं; न में जप में न में तप में है न मैं योग उपवास में”॥  

बाबा बुल्ले शाह भी कहते हैं

पड़ आलम फ़ाज़ल होया, पर अपने आप नू पड़या ही नहीं॥

जा जा मंदिर मसीतां बेठएं, मन अपने विच वड़या ही नहीं ॥

रोज़ जा शेतान नाल लड़दा एं, नफ़स अपने नाल लड़एया ही नहीं ॥

बुल्ले शाह असमानी उड दा फिरदा एं, जेहड़ा घर बेठा उस नू फड़या ही नहीं ॥

 

Guru Arjan Dev Ji mentions--

पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥

पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥

पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥

हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ ॥

 

खुदा की पहचान के लिए क्लब और रूह को इलाही नाम, शबद, Word या इस्मए-आजम या कलाम-ए- इलाही, नदाए-सुलतानी के जरिए उसकी realization करनी पड़ती है ॥ उस वक्त अपनी अनह जो कि दुई या दूजे भाव की वजह है , यानि duality को फ़ना करना पड़ता है , और जमानो- ओ -मकान  (time and space) की तवजो को तर्क करके तवहीद में आना पड़ेगा –realization of oneness has to  be attained या फिर eko में समा जाना पड़ेगा॥ गुरु अर्जन देव जी कहते है --

 

इतु मारगि चले भाईअड़े गुरु कहै सु कार कमाइ जीउ ॥

तिआगें मन की मतड़ी विसारें दूजा भाउ जीउ ॥

इउ पावहि हरि दरसावड़ा नह लगै तती वाउ जीउ ॥

 

मिर्जा ग़ालिब ने भी बहुत सी दानिशमंदी से अपनी शयरी में कहा है—

न कुछ था तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता

डुबाया मुझ को होने ने , न होता मैँ तो क्या होता ॥  

कहते हैँ कि मेरी अंह या अनाह ने मेरे को मेरे महबूब यानि रबुल आलमीन से जुदा होने का एहसास दे दिया॥ अनह की फ़ना ही निजात की निशानी है ॥

 

अमूमन बंदे कि बंदगी दुनिया दुनिया के साजो-समान के लिए होती है ॥ हम सोचते हैं कि खुदा को पता नहीं है कि हमारी जरूरत और खाविश  क्या है ॥ मुहबत दुनिया से हो, फिर खुदा की इबादत कैसे हो सकती है , खुदा से इश्क कैसे हो सकता है ॥अलामा इकबाल लिखते हैं –

 

1)      जो मैं सर - ब - सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा ,

तिरा दिल तो है सनम - आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में॥

2)      मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने 

मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका     

 

आम तौर पर हमारी सारी पूजा, पाठ, यज्ञ,नमाज़ उपवास, रोज़े, हज, तीर्थ  --  दुनिया के साज़ों समान या रंग तमशे देखने के लिए या फिर दौलत, उहदे  और माशरे में वाह वाह  को पाने के लिए होती है जोकि आरजी हैं टेंपरेरी हैं और नाशवान है॥   हां यह ठीक है कि बाहरी, पूजा, पाठ और रीति रिवाज मन को थोड़े अरसे  के लिए शांति देते हैं, momentary सकून का एहसास देते हैं , पर यह कभी भी आदमी के दाईमी ( perpetual ) सुख और सकून की वजह नहीं बन सकते॥  बल्कि जो  भी  दुनियावी साजो समान  सुख देते  हैं वोह सब  आखिर में दुख में तब्दील हो जाते हैं॥ दौलत और जयदाद (property)  के झगड़े पड़ जाते हैं॥ घर घर में दुनायवी मसलों ने ज़िंदगी को आज़ाब बनाया हुआ है ॥ सतो, रजो, तमो गुण यह  तो सोने या लोहे की जंजीरें हैं॥ कबीर साहिब गुरबानी (page  1123) में इन तीन गुणों को माया या illusive or deception कह कर बताते हैं –

रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥

Raajas, the quality of energy and activity; Taamas, the quality of darkness and inertia; and Satvas, the quality of purity and light, are all called the creations of Maya, Your illusion.

चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ

That man who realizes the fourth state - he alone obtains the supreme state.

तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥

Amidst pilgrimages, fasting, rituals, purification and self-discipline, he remains always without thought of reward.

  जब तक एक शख्स या आदमी खुदा की अंदरूनी इबादत नहीं करता और ज़िंदगी की गर्दिश  से निजात  नहीं पाता, यानि 84 के चक्कर से आज़ाद नहीं होता  तब तक वह दुनिया की गर्दिश में हैरान और परेशान ही  रहता है॥ गुरबानी कहती है –बिन शबदे होमे किन मारी। बिना शबद की कमायी से कर्मों का चक्कर खतम नहीं होता, मन में खोट और पाप का बीज फिर फूट पड़ता है॥ सारी पूजा, मंत्र, यग बेकार हो जाते हैं ॥  

गुरु नानक साहिब ने यह वाज़े कर दिया है –

 

लख नेकीआ चंगिआईआ लख पुंना परवाणु ॥

Hundreds of thousands of virtues and good actions, and hundreds of thousands of blessed charities,

लख तप उपरि तीरथां सहज जोग बेबाण ॥

hundreds of thousands of penances at sacred shrines, and the practice of Sehj Yoga in the wilderness,

लख सुरती लख गिआन धिआन पड़ीअहि पाठ पुराण ॥

hundreds of thousands of divine understandings, hundreds of thousands of divine wisdoms and meditations and readings of the Vedas and the Puraanas -

नानक मती मिथिआ करमु सचा नीसाणु ॥२॥

O Nanak, all these things (including the wisdom of the self) are false. True is the Insignia of His Grace. ||2||

 

संतमत और सूफियाना बाजुर्गों-दीन शरिया के खिलाफ नहीं है॥ क्योंकि शरिया भी बचपन में  इखलाकी (morality) तर्बियत करती है, इंसान को खुदा के बारे में कुछ जानकारी देती है ॥अनह, तुकबर, गरूर  का रास्ता छोड़ कर हलीमी सिखाती है ॥ सच और झूठ के फरक के बारे में आगाह करती है॥ हक हलाल की कमायी करने की हिदयात देती है -- पर यह तो शुरायात है—जो की मजीद अधूरी है॥

 

2. निरबाण कीरतनु गावहु करते का निमख सिमरत जितु छूटै ॥१॥

संतहु सागरु पारि उतरीऐ ॥ कामिल मुरशिद खुदा के हुकम और फज़ल-ओ-कर्म से नाम और शबद से मुरीद के ऊपर रहमो कर्म करता है॥ इसके बाद तरीकत, मार्फत, हकीकत के रास्ता तय करना पड़ता है ॥ जो मुरीद, मोमिन, आदिब , शिशय --वक्त के कामिल मुरशिद की नसीहत, जिक्र और फिक्र के मुरकाबे की बंदगी के जरिए , इश्क, तड़प, बिरह,हुकम- बजावरी, सब्र -ओ-रज़ा, के मुताबिक अपनी ज़िंदगी बसर करते हैं वोह अल्लाह के मुकदस मुकाम यानि मुकाम-ए-हक में अनल-हक की कबूलियत, बखशिश और बुलंदी को realize कर लेते हैं, पहचान कर सकते हैं।

“निरबाण कीरतनु” यानि रूहानी धुन या नाद जो सतलोक या मुकमे-हक से आ रही है उसमे रूह जब मस्त हो जाती है या फिर उस धुन का सिमरन ज़हन में चलता है तब 84 की गर्दिश से, गुरु की रहमत से उस रूह को निजात/मुक्ति हासिल हो जाती है ॥ काएनत के समंदर से निकाल कर सचखंड में समाने के काबिल बन जाती है ॥ ऐसी हालत में दुनिया की असलीयत जाहिर हो जाती और मन और माया के सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाती है ॥  

 

3. जे को बचनु कमावै संतन का सो गुर परसादी तरीऐ॥

 

गुरु नानक साहिब ने जप जी के मूलमंत्र में परमात्मा को मिलने की तरीकत बड़े दावे से लिख दी है --- “गुरप्रसाद जप”॥ इसके आगे न कुछ है न कभी होगा ॥

बस फार्मूला यही है कि वक्त के गुरु से जब नाम सिमरन की रहमत होगी—तब ही इस भव सागर या काएनत के समंदर यानि ocean of cosmic existence  से मुक्ति मिलेगी ॥

 

हाथरस के तुलसी साहिब भी मोमीनों को ऐसा ही इशारा करते हैं-- 

 

मुरशिदे कामिल से मिल सिदक और सबूरी से तकी 

जो तुझे देगा फ़हम शाह रग के पाने के लिये ॥ 

गोशे बातिन हों कुशादा" जो करे कुछ दिन अमल। 

ला इलाह अल्लाहू अकबर पै जाने के लिये ॥

यह सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दे। 

कुन  कुरां  में है लिखा अल्लाहु अकबर के लिये ॥

 

 

 

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