मेरे सर को दर तेरा मिल गया, मुझे अब तलाशे हरम नहीं।
मेरी बंदगी है वो बंदगी, जो कैद-ए-दायरे-ओ-हरम नहीं।
मेरी एक नज़र तुम को देखना, वह खुदा नमाज से कम नहीं।
तेरा प्यार है बस मेरी ज़िंदगी॥
FROM QUALI OF NUSRAT ATEH -ALI-KHAN
Literal meaning-- Oh my
Satguru, my Murshid -- this humble seeker has found the door to pay my
obeisance and I seek no other place of worship.
My devotion is not constrained in the four walls of any structure. Oh
Master, your one look is more than Namaz. Your yearning and craving are the sole
purposes of my life.
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Introspective Understanding – सूफियान फलसफे में वक्त के पीर-ओ-मुरशिद और मुरीद के इश्क के रिश्ते को बहुत ही मुकदस माना जाता है ॥ मुरीद अपने मुरशिद की कबूलियत के वक्त अपनी ला-इंतह खुशी का इज़हार करता हुआ कह रहा है मेरे सर को दर तेरा मिल गया ॥
गुरबानी में भी इसी रिश्ते को बहुत तफ़सील से समझाया है जैसे “भाग
होया गुरु संत मिलाया , प्रभ अबनासी घर में पाया” (Page 97) ॥ सतगुरु की मुलाकात (मिलाया) रब की बेअंत बखशिश और मुकद्दर
के जरिए होती है और उस की मेहर से रब के एहसास का रास्ता आशकार होता है ॥ सिख के शुकराने
के बारे गुरबानी के बचन हैं --‘कुर्बान जांवअं “उस वेला सुहावी” जित तुमरे द्वारे आया॥ नानक को प्रभ भए किरपाला सतगुरु पूरा पाया’ ॥ (Page 749)
सतगुरु जिस लम्हे सिख (की रूह) को कबूल कर लेते हैं उसे “वेला सुहावी”—blessed moment कहा गया है॥ उस वक्त रुहनीयत की तरीकत का राज़ या कलमे के जिक्र और मुराकबे (meditation) करने की तरकीब समझ आती हैं॥ तब सतगुरु के शबद स्वरूपी या चरण कमल( मन और माया के मुकाम से ऊपर) जाने का सफर की शुरुआत होती है ॥ ऐसे रास्ते को ईमान, यकीन, सबर, रज़ा से तय किया जाता है ता कि ज़िंदगी का तवाजून या balance disturb न हो जाए ॥
इबादत-ओ-इश्क का सफर बेशक सतगुरु और सिख के आपसी तालुक से शुरू होता है ---पर असल में सतगुरु भी शब्द स्वरूप है और शिश भी शब्द है—(“शबद गुरु सुरत धुन चेला) ॥ फरक इतना है कि शिश को रूह पर मन- माया के गिलाफ़ों की जानकारी नहीं होती और हकीकत से अनजान होता है ॥ जिस्म तो मुरशिद, मुरीद और हम सब का सपुर्दे खाक के काबिल है ॥
इंसान अपने मन को तो गुरु मान सकता है, पर किसी दूसरे इंसान को गुरु मानना एक पेचीदा सवाल है ॥ गुरबानी कहती है –जिसको पूरब लिखया तिन सतगुरु चरन गहे Page 44॥ यहाँ पर अक्ल काम नहीं करती, सब नसीब के खेल है ॥ दूसरी जगह गुरबानी कहती है –सतगुर दाता हर नाम का, प्रभ आप मिलावे सोई Page39 ॥
सतगुरु की बतायी इबादत से शिश की ज़ाहरी और बतिनि ज़िंदगी में तबदीली आ जाती है॥ उसकी पुर जोश अक़ीदत आँदूरणी और अशकानी हो जाती है। The focus of life shifts from devotion of external to inner dimension. जैसे जैसे शब्द, यानि इस्म-ए आजम की मार्फत से हकीकत का एहसास होता है, खालक का ज़हूर, शूर और नूर अंदर और बाहर महसूस होता है॥
मेरी बंदगी “कैद-ए-दायरे-ओ-हरम नहीं” की ताबीर है कि इबादत, जमान-ओ- मकान ( time and space) तक महदूद नहीं रहती॥ मुरशिद की नजर-ए इनायत और दीदार को नमाज़ या बंदगी का दर्जा दिया है ॥ ऐसी बंदगी के नतीजात को गुरबानी में – लख खुशियां पातशाहियाँ जे सतगुरु नदर करे (Page 44) बयान किया है ॥ किसी सूफी ने कहा है “आशिक -इश्क नमाज़ हमेशा, ला-हरफ़ों करण अदायी”॥आशिक का इश्क ही नमाज़ है जो कि अल्फ़ाज़,मुसले,तसबीह,वजू या सर झुकाने में पाबंद नहीं होती ॥
कहा जाता है इश्क अंधा होता पर वहदत या oneness का एहसास भी ऐसे जनून में होता है ॥ Love is blind, meaning it can see no fault in the Beloved. That kind of blindness is the height of seeing॥ यह इश्क ही सचे जप, तप, पूजा, पाठ, जिक्र, फिक्र, विरह, वैराग-- अनल हक का समान है ॥
शिश की हालत गुरु के दीदार के बेगैर कैसी होती है ---इक घड़ी न मिलते तो कलजुग होता ॥ Page 96