Tuesday, April 27, 2021

DEEN AUR DUNIYA दीन और दुनिया में इंसान का इश्क़ का रूहानी सफर

 

दीन और दुनिया में इंसान का इश्क़ का रूहानी सफर  

दुनिया

इंसान का जब से इस काएनत में आगाज़ हुआ है, अमूमन इस की तलाश दुनिया में  ही महदूद रही है ॥ बंदा दुनिया का दीवाना मस्ताना और ग़ुलाम  है ॥ आलमे फ़ानी में इंसान मुबतला है॥  जिंसी ख्वाहिशात लालच, गुस्सा, मोह, और गरूर की वजह से आदमी सब इखलाकी असूल भूला बेठता    है। इस जहान का सफर आदमी के लिए बड़ा जंजाल है ॥ गुरु नानक साहिब ने इसको “ बाबा जग फाथा महा जाल”॥ ऐसा जाल जिस मे छोटी से छोटी मछली नहीं निकल सकती॥ कबीर साहिब का कलाम है— तन धर सुखिया कोई न देखा जो देखा सो दुखिया रे ॥ उदय असत की बात  कहत  हूँ सब का किया विवेका रे॥ आसा तृष्णा सब को व्यापए कोई महल नहीँ सूना रे ॥  इस ज़िंदगी और जिस्म में सब दुखी हैं। हर तरह का खौफ या खतरा इंसानी ज़हन में रहता है॥     हबीब पेंटर की एक कव्वाली है—“ फूलन जलती चिता है दुनिया दोजख की पगडंडी है , इस पर धोखा कभी न खाना हर पहलू से गंदी है”। इसकी चमक दमक ने सब को नचा रखा है ॥ ज़िंदगी की परेशानी को मुग़ल सरदार बहादुर शाह ज़फ़र—जो एक सूफी भी माने जाते हैं –इंसान के हालात इस जहान में कुछ ऐसे अंदाज में लिखा है --

1.       लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,किस की बनी है आलम-ए-ना-पायेदार में॥

2.       उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये, दो इंतज़ार में॥

3.       कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में॥

4.       है कितन बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥

दीन, धर्म, या मजहब  को बहुत लोगों ने सिर्फ दुनिया के लिए इस्तमाल किया है ॥ मतलब कि  -- दीन के लिए उन की तवज्जो  दुनिया को हासिल करने के लिए है ॥ अपने गरुर-ए नफ़स  में आदमी  तकब्बुर के रास्ते पर चलता है और उस खुदा या अल्लाह या परमात्मा की  याद, या तो मुसीबत में और या फिर तकलीफ में आती है, और या फिर दुनियावी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए ॥ दुनिया अपनी बनती नहीं क्योंकि जो दिख रहा है या गायब है सब माया है और वक्त के साथ बदल जाएगी॥ गुरबानी में लिखा है --- एह मार्ग संसार में नानक थिर न कोई ॥ जो बदलाव हुआ है वोह भी बदल जाएगा ॥  दुनिया की हर शै जो बहुत लुभाती है आखिर दुख की वजह बनती है ॥ इस अजीब -ओ गरीब धोखे और फरेब से आदमी का मन अपने आप को महफूज नहीं रख सकता ---जब तक उस पर परवरदिगार की रहमत न हो ॥ गुरु नानक साहिब ने इस काएनात की हर शे को कूड़ या  झूठ या बातिल बताया है और कहा हे खुदा तेरे बिना कुछ सच नहीं है॥  

कूड़ु राजा कूड़ु परजा कूड़ु सभु संसारु ॥कूड़ु मंडप कूड़ु माड़ी कूड़ु बैसणहारु ॥कूड़ु सुइना कूड़ु रुपा कूड़ु पैन्हणहारु ॥कूड़ु काइआ कूड़ु कपड़ु कूड़ु रूपु अपारु॥  कूड़ु मीआ कूड़ु बीबी खपि होए खारु ॥

कूड़ि कूड़ै नेहु लगा विसरिआ करतारु ॥किसु नालि कीचै दोसती सभु जगु चलणहारु कूड़ु मिठा कूड़ु माखिउ कूड़ु डोबे पूरु ॥नानकु वखाणै बेनती तुधु बाझु कूड़ो कूड़ु ॥१॥

तासीर या तात्पर्य  यह है कि  दुनिया का राज पाट, महल, सोना, चांदी दुनियावी ताल्लुकात सब बातिल हैं॥ इस जहान की माया ने बंदे को गलतान और हलकान कर के रखा है॥

असली दीन तो रुहिण्यात की तरफ इशारा करता है और समझाता भी है॥ पर हम मन से मजबूर  होकर इस ज़िंदिगी में ऐश-ओ -आराम को ढूंढते हैं और इंसानियत के  कीमती से कीमती असूलों की कुर्बानी दे देते हैं ॥ अपने ज़मीर को कोड़ियों में बेच देते हैं ॥ अल्लाह की  रहमत और दया से नवाकिफ रहते हैं और न शुक्रगजार रहते हैं॥  जब ऐसे आमाल का नीतजा आता है तो यह दुख दर्द, बीमारी, माली नुकसान, tension and depression में बदल जाते हैं ॥ ज़िंदगी में जरूरत और ज़र  का तवाजून रखना चाहीये॥ Need and greed should be balanced.  जिस अमल या ख्याल का  आगाज़ गलत है उसका अंजाम भी वेसा होगा॥

इंसान क्या है   

इंसान असल में क्या है ? इंसान अशरफकुल -मखलूकात  है ॥ खुदा ने इसे top of the creation का दर्जा दिया है॥ यह जमीन, दरख्त, पहाड़, सूरज, चाँद  आसमान, पानी के झरने, नदियां, समुंदर  किस के लिए बने  हैं? सूरज दिन को क्यों हरारत देता है? चंद की रोशनी और रातें किस के लिए ठंडक देती हैं? यह सब क्यों होता है? सोचा है कभी ?  कायेणात की सारी खूबसूरती , कायनात  का सब तमाशा इस के लिया बना है ताकि इंसान आराम और सकून से रह सके और रब का शुक्र अदा करे ॥ लेकिन इंसान नाशुक्रा है ॥ आंखे होने के बावजूद देखता नहीं, कानों से सुनता है पर ध्यान नहीं देता॥ हमारी एक सांस बंद हो जाए तो किस्सा तमाम सारा॥ इस के बावजूद भी हकीकत को नहीं मानता ॥ अल्लाह को याद नहीं करता, खुद को तकतवार समझता है॥ दुआ यही करनी है कि अल्लाह हमें शुक्र करने वाला बनाये ॥

इस फरेबी मन-माया ने इंसान और इसकी रूह को अपने कब्जे में गिरफ्तार किया हुआ है॥  रूह, जो असल में खुदा का ला-फ़ानी हिस्सा है रूहानियत  के रास्ते से बेदार रहती है और खानाबदोशों की मानिंद एक जून से दूसरे जून के जामे में कैद रहती है ॥ इंसानी जामे  का असली मकसद तो अपने आप को पहचानना है, खुद शनासी करना और  अल्लाह से विसाल करना है॥ अनल हक का मुकदस सफर तय करना है और दुनियावी हयात से नजात हासिल करना है ॥ पर आदमी हिजर के सफर में आलमे फ़ानी में गलतान रहता है और निचली जूनों में फंस कर ज़िंदगी के मकसदे मकसूद को भुला देता है ॥

रूहानियत एक जरिया है, technique है,  उस रब का शुक्र अदा करने और  खुद शनासी के लिए, ताकि दुनिया की खिचावाट , (pull or attraction of the material world)  कमजोर पड़ जाए ॥  परेशानी यह  है  कि दीन को शरिया ने जकड़ लिया है॥ मौलवी, काज़ी शेख, पंडित, भाई लोग अपने पेट, पैसे  और मजहब के लिए आम आदमी को  एक ऐसे माशअरे  की कैद में बंद कर देते हैं  ---जिस में जाहिरी  सजदे की इबादत, नमाज़, रोज़े ,जकात, पाठ, पूजा, तीर्थ, स्नान , मंत्रों को पड़ना धर्म ग्रंथों के आगे झुकना, दान देना तक महदूद कर दिया है ॥ असली मकसद के लिए यह सब कर्म-कांड या जाहिरी इबादत बे-फायदा हैं--- जब तक मोमिन, या शिश या  सिख जो पड़ता है या  पाठ-पूजा  करता है उस इल्म को अमली जामा नहीं पहनाता ॥ रूह खुद - शनासी से महरूम रहती है और इंसानी जामे के मौके को ज़ाया करती है ॥ 

 अलामा इकबाल लिखते हैं—

में जो सर-ब -सजदा हुआ कभी, तो ज़मी से आने लागि सदा॥

तेरा दिल तो है सनम-आशना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में॥

मतलब ---मेरे ज़मीर से आवाज आ गयी कि हे बंदे--- तेरे सजदों से खुदा खुश न होगा, जब तक तेरा दिल दुनिया के ख्यालों में मुब्तला है॥  

 अलामा इकबाल दूसरी जगह लिखते हैं--

मस्जिद तो बना दी शब भर में, ईमाँ  की हरारत वालों ने ॥

मन अपना पुराना पापी है, बरसों में नमाज़ी बन न सका ॥

जो अपने दीन या धर्म में यकीन रखते हैं, उनके लिए  इबदतखाने (मस्जिद/मंदिर/गुरुद्वारे) बनाना आसान है --- पर मन की शैतानी को काबू करना बहुत पेचीदा काम है ॥

 

एक और शेर है— जिसमे खुदा बंदे को समझा रहा है—“ इबादतखानों  में क्यों ढूंढ ते मुझे, मैं वहाँ भी हूँ , जहां तुम गुनाह करते हो ॥

 

बुरे कर्मों  या अम्लों का नीतजा तो बुरा होता ही है  पर नेक अमल भी—जिनको सतोगुण कहा गया है --- आदमी को दुनिया में फँसआयें रखती  हैं और 84 की गर्दिश के दयारे में रखते  हैं॥ इसको “तपो राज और राजों नरक” कह कर बताया गया है ॥ इस की तुरजमानी यह है  -- नेकी भी दुनिया की कैद की बेड़ियाँ बन जाती हैं-चाहे वोह सोने की क्यों न हों॥ राजा-महाराजा बन गए तो अंह और गरूर आ गया, ऐश-ओ-इशरत आराम, मनमानी फरमानी से लोगों पर ज़ुल्म करने की आदत बन जाती है ॥ मज़लूमों पर ज़ुलम करना --- दुनिया के चक्र में गलतान करती है जिस का नतीजा अदा करना पड़ता है ॥

इश्क़  

अगर खुदा के इश्क़  की सच्ची अहमिअत बंदे को अपने होश- ओ- हवास में हो जाए, तब ही इंसान गर्दिश के दायरे से निजात हासिल कर सकता है ॥

वारिस शाह अपने किस्से हीर-राँझे में लिखते हैं—“ अवल हमद खुदा का विरद कीजे , इश्क़  कीता सू जग द मूल मियां ॥ पहले आप ही रब न इश्क़  कीता, माशूक है नबी रसूल मियां ॥ सबसे पहले, हम उस अज़ीम वाहिद-उल -शरीक  खुदा की तारीफ करते हैं जिसने सिर्फ इश्क़  को अपनी खुद- शिनासी के लिया कनून-ए-निजाम बनाया॥ खुदा ने खुद अपनी मोहब्बत से ही अपने महबूब रसूल मोहम्मद साहिब को राज़े -इश्क़  से आशकार किया ॥

 

इश्क़  और अल्लाह में कोई फरक नहीं ॥ क्योंकि इश्क़  से ही दुई की दूरी दूर होती है और तौहीद का आगाज़ होता है ॥ इश्क़  क्या है, इसको बयान नहीं किया जा सकता पर महसूस किया जा सकता है॥ इश्क़  जितना ज़ोर मारता है, उतनी ही इश्क़  की कमी का एहसास होता है ॥ इश्क़  ला-इंतहा है, बेहद है मन की समझ से बाहर है क्योंकि इंसानी अक्ल महदूद  है । इश्क़  में अपनी हस्ती खत्म करनी पड़ती है, जब कि दुनिया की जदो-जहद में अपनी हस्ती को बुलंद करना पड़ता है ॥ आशक समझता है वोह मुहब्बत करता है –असल में मशूक की खूबसूरती उसको इश्क़  करने से मजबूर करती  है ॥ इश्क़ में इंसान हेरान और परेशान हो जाता है कि इश्क़  की चिंगारी कैसे लगती है इस पर किसी ने वाजिब नतीजे पर नहीं पहुंचता ॥  

रूहानियत के जान कारों ने , जिन्हों ने अल्लाह से विसाल किया है, उन का कहना है अल्लाह के फ़ज़लो करम  से इंसान की रूह में इश्क़  का बीज डाला गया है॥ इश्क़  हमेशा  इंसानी ज़हन, एहसास और शऊर (consciousness) में अंदरूनी  बदलाव लाता है ॥ ॥ यहाँ पर इश्क़  हक़ीक़ी की तरफ इशारा है जिसमे जिस्मी ताल्लुकात, जिंसी या इंसानी वजूद की मोहब्बत की मंशा नहीं होती  ॥ इश्क़  हक़ीक़ी का फजल-ओ-करम कैसे होता है, जिसमे कलमे या ईसम-ए-आज़म  की इबादत  और मुरशिद-ए-कामिल की बंदगी ,प्रेम और बिरह शामिल हैं –इन सब की  तरतीब थोड़ी देर में होगी  ॥ पहले इश्क़  हक़ीक़ी के बारे में कुछ खयलात लिखना जरूरी है ---

मीरदाद लिखते हैं- इश्क़  कानून-ए -खुदा है ॥ इश्क़  से ही इबादत सीखी जा सकती है और बंदे की ज़िंदगी का मकसद भी अल्लाह से इश्क़  करना है ॥ इश्क़  का अंधा सब कुछ देख सकता है क्योंकि उसको किसी दूसरे  में कोई खामी, कसर, कोताही या खराबी नजर नहीं आती है ॥ (Love is blind but that blindness is the height of seeing.)

गुरु नानक साहिब –नदानी यह दुनिया व फ़ानी मुकाम ॥ तूं खुद चशम बीनी है चलना जहान॥   हर वकत बंदे न तू खिदमत विसार ॥ मस्ती और गफलत में बाज़ी न हार ॥ दुनिया का बाजार बड़ा अहमकाना (ignorant) और काबिले तबाही, फ़ानी या आरज़ी है temporary है ॥ ओह बंदे उस मालिक से इश्क़  या खिदमत से मुंह मत मोड़ना॥   

एक और सूफी ने लिखा है –

मैं अज़ल से बंदा इश्क़  हूँ, मुझे जुहूद-ओ-कुफ्र का गम नहीं॥ मेरे सर को दर तेरा मिल गया, अब मुझे तलाशे हरम नहीं ॥

एक मोमिन कह रहा है ---अज़ल मतलब काएनात की शुरायात से ही मैं इश्क़  का गुलाम हूँ (since eternity I am bound by the doctrine of ishq)..  मेरे को खुदा पर यकीन या ना-यकीन या     दूई (duality) का फिक्र नहीं है॥ मुझे एहसास हो गया कि खुद-शिनासत (self-realization) का रास्ता मेरे अंदर ही है॥ अब मुझ को इबादत के लिए किसी जगह को तालाश करने की जरूरत नहीं है ॥ मतलब –इश्क़  को इश्क़  की मंजिल मिल गई और रूह का हायती सफर खतम हो गया है   

   

हाथरस के संत तुलसी साहब भी यही कहते हैं की “ये राहे- मंजिल इश्क़  है” इसका मतलब रूहानी रास्ता भी इश्क़  है  और मंजिल भी इसकी इश्क़  है ॥ आगे कहते हैं “मंसूर, सरमद, बु-अली और शमस, मौलाना हुए पहुंचे सभी इस राह से जिन्होंने दिल पुख्ता किया” ॥ ये तो एक बहुत बड़ा ऐलान  है के दुनिया के अज़ीम सूफी हज़रात  मंसूर -अल हलज, सरमद जिनको इश्क़  की खातिर फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया और बु-आली कलंदर जिसने उस परवरदिगार के इश्क़  में पानी में अपना जिस्म गलतान कर दिया॥ शम्स तबरेज और मौलाना रूम-- मुरशिद और मुरीद—की आपसी इबदात, कुर्बत, नजदीकियों   —की वजह से शमस का भी गला काट दिया गया॥ और फिर  मौलाना रूम ने अपने मुरशद के इश्क़  में अपना सारा फलसफा शरिया से इश्क़ में बदल दिया॥   

गुलाम फरीद का कलाम है ---

मेडा “ज़िक्र” वी तूं मेडा “फ़िक्र” वी तूं//मेडा इश्क़   वी तूं मेडा यार वी तूं //मेडा दीन वी तूं ईमान वी तूं//मेडा जिस्म वी तू मेडा रूह वी तूं //मेडा क्लब वी तूं जिंद जान वी तूं //

केई सूफियान  और संत महात्मा “वजूद की हयात” से नजात या संसारी ज़िंदगी से मुक्ति पाने के लिए “आबे-हयात” के लफ़्ज़ का  जिक्र करते हैं ॥ इसको nectar of immortality भी कहा गया है॥ जिस को पीने के बाद इंसान का आखरित का सफर फ़ना में होता है और 84 की गर्दिश से आजादी मिल जाती है॥ अमृतसर ( अमृत का सरोवर या अमर होने का सरोवर ) वोह जगह है जहां खुदी से निजात मिलती है ॥ यह कोई बाहर का ईंट, पथर, पानी का सरोवर नहीं है --- पर एक मिसाल के तौर पर समझने के लिया है ॥   

आबे -हयात कोई जाहरी, बाहरी या गैब रूप का पानी नहीं है ॥  असल में “इश्क़  हकीकी” में अपनी हस्ती को नीसत-ओ -नाबूद करना ही “आबे -हयात” है ॥ ऐसा इश्क़  में आशक और माशूक की तौहीद हो जाती है, दुई का एहसास खतम हो जाता है॥  कुफ़र -ईमान- यकीन- बुत- बुतखाना- हरम  या शिक्र की सारी बहस “आबे -हायती -इश्क़ ” में खत्म हो जाती है ॥  

“मंसूर अल हलज”, जिन की “अनल हक” की  मुबारक नसीहत अपने मुरीदों को इश्क़  की थी, कहते हैं

कहे मंसूर‘ मस्तानाये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ानाउसी के बीच आता जा I   

बाबा बुल्ले शाह भी कहते हैं कि जब मुझ को इशक की रमज़ समझ आ गई तो मैं और तूं का  झगड़ा ही खत्म हो गया॥  मतलब के उस खुदा के सिवा मुझे कुछ नजर ही नहीं आया॥  ये इश्क़ की बहुत बड़ी करामात है ---

जा मैं रमज़ इश्क़  दी पाई मैंना तोता मार् गवायी

अंदरू बाहरों होयी सफ़ायी जिस वल देखो यारो यार

 

शमज़ तबरेजी ने खुदा के इश्क़  के बारे बहुत इशारे किया हैं,  मसलन –जहां इश्क़  है वहँ दर्द भी लाज़िम है ॥ जिस्मानी सफाई के लिए रोज़े और तोबा की जा सकती है पर रूह के ऊपर जो  मन की गलाजत के परदे पड़े हुए है यह सब इश्क़ , खिदमत और इबादत से ही नकारे किए जा सकते हैं ॥  

इश्क़  के कई  रंग है—नफरत और हसद (jealousy) भी इश्क़  है॥  क्योंकि जिस से को बंदा नापसंद  करता है या दुश्मन समझता है  उसके बारे में भी बहुत सोचता है और उसमे मुब्तला रहता है॥ जो लोग किसी की मुखालफत करते है , तो भी इसी सोच में रहते हैं के दूसरा आदमी मेरे ख्यालों से क्यों नहीं सहमत होता ॥ हसद यानि ईर्षा एक बेचेनी है कि मैं दूसरे शकस जैसा क्यों नहीं बन सकता ॥ In English hate and jealously are termed negative love.  

 

सूफी और संत यह भी समझाते है कि खुदा की रजा या मंशा में खुशी खुशी रहना बहुत वाजिब जरूरत है ॥ गुरु नानक साहिब कहते हैं --- किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥

हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥ मतलब कि हकीकत का एहसास कैसे होता है और द्वेत या दूजे भाव या माया से (जिसको गुरु साहिब ने कूड़ कहा है ) ज़हन को  कैसे बे-दखल किया जा सकता है ॥ मुकमे हक  या सचखंड  के लिए गुरु साहिब ने एक ही तदबीर बतायी है ---- कि उस खुदावंद के एहसास के लिए उसकी रज़ा,मौज से जो  हालात उसके हुकम या इस्म-ए -आज़म या नाम की वजह से ज़िंदगी में आते हैं या आएंगे , उनको अल्लाह की रहमत या बखशिश समझ कर शुकर से कबूल कर लेना चाहीये ॥ इस तरह की कबूलियत अपनी हस्ती को नीसतो-नाबूद करने से आती है ॥ इश्क़  ही एक ऐसी तरीकत है जिस से कि बंदा अपने वजूद को फ़ना कर सकता है ॥ क्यों कि मुकामे इश्क़  में ही दुई दूर होती है -------मैं, तूं , हम, वोह, तेरा, मेरा का अंदेशा खत्म होता है ॥ मिर्जा ग़ालिब ने इस को अपनी गजल में ऐसे लिखा है  -- हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है॥ खुदा के इश्क़  से बे-वफ़ायी ही इंसान के दर्द की वजह है ॥

 

खुदा का खौफ

 

आशिक जब इश्क़  में मुब्तला होता है तो उसको एक डर का एहसास होता है॥ ये डर किसी अचानक या यकायक मुश्किलआत या मुस्तकबिल या मौत का नहीं होता॥ यह खौफ अंदरूनी  इश्क़  की वजह से पैदा होता है ताकि आशक की इबादत या खिदमत में कोई कमी ने रह जाए या फिर मुरशिद के फरमान की कोई हुकम अदूली न हो जाए ॥ This is the fear of not offending the Lord or the Master. ॥ एक बेगम अपने शौहर से जब मुहब्बत करती है तो वोह डर कर भी रहती है ॥ गुरबानी में इसको कहा गया है –“कामन गुणवंती हर पाए,  भए भाउ सीगर बनाए “ कि रूह रूपी गुणों वाली स्त्री इश्क़  और खौफ से शिंगआर करती है ता कि मशूक की खुशी महफूज रहे और वही रूह रूपी  दुल्हन मालिक की खुशी हासिल करती है  ॥ अगर आदमी कोई अमल या दीनी इबादत ( कर्म-धर्म) बिना मालिक के खोफ, याद, या जिक्र के बिना करता है उसका  पूरा फायदा नहीं मिलता – बिन भए कर्म कमावने झूठे ठाऊ न कोई..

 

असल में खुदा का खोफ ही उस से मोहबत की निशानी है----  एक सूफी ख्याल है------

 

नामे खुदा है हर जगह,

जिक्र-ए-खुदा कहीं कहीं ॥

जिक्र-ए-खुदा हो भी अगर,

तो खौफ -ए -खुदा कहीं कहीं॥

अगर अल्लाह का भय  या डर लगातार या मुसलसल बना रहे इंसान कोई खता या पाप करने से बचा  रहता है----- ।खुदा का खौफ एक शदीद ज़हीन फलसफा है॥ जब की मौजू रूहानी सफर मुकमे हक का हो तो  इश्क़  और खौफ का तालुक बहुत गहरा हैं॥  सूफियान के नजरिए के मुताबिक इस फलसफे को सात हिस्सों में बाँटा है – 1)तौबा (पिछले गुनाहों से सीखना ताकि आगे कि ज़िंदगी में पाप से पेरहेज़ करना) 2) वारा—(सारे अमल हलाल करना और हराम की  सोच से भी दूर रहना) 3) जुहूद –mental renunciation, दुनिया को फ़ानी समझ कर अपनी खवाशिऑन से निजात पाना ॥ 4) फकर –जरूरत को जरूरी न समझते हुए अल्लाह पर भरोसा करना, मन में आरिज़ात रखना, गरीबी को शान  समझना॥ Faqiri considers poverty as a pride, full of humility. 5) सब्र—अल्लाह की रजा का हमेशा शुक्रगुजार रहना॥ 6) तवाकुल—हर हालात में अल्लाह पर यकीन रखना, पर अपनी मेहनत  मुशक्कत से पीछे नहीं हटना ॥ 7) रिदा या रज़ा —मालिक की कबूलियत का इंतजार करना ॥  

 

मोमिन या मुरीद जब तक इन सात मुद्दों को अपने ज़हन में नहीं रखता तब तक इश्क़  और खौफ के परमेटीरस (parameters) पूरे नहीं होते ॥

 

बिरह या विरह या खुदा से बिछेड़ने का दर्द ( hijr-हिज़्र

 

 

खुदा के खौफ,के बाद इश्क़  का अगला मुकाम “बिरह” का आता है॥  ( बिरह का बाहरी मतलब है --खुदा, रब-ए-आलमीन, अल्लाह, ईश्वर से बिछेड़ने के दर्द की तड़प और उस परवीरदगार को मिलने या उसके दीदार की बेचेनी॥) यह आग परवरदिगार की महरुमीयत का एहसास और मुकमे हक की तनहाई की  निशानी है॥  इश्क़  अगर हवाई जहाज़ की तरह airstrip या runway पर दौड़ने का काम करता है, तो बिरह हवाई जहाज के उड़ने की मानिंद है ॥ इश्क़  अगर समंदर  है, तो बिरह उसमे तूफ़ानी हलचल है जो समुद्र या समंदर के अंदर ही रहती है और सेलाब  बनके बाहर नहीं आती ॥   ऐसी बेताबी को लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता॥   इस बेकरारी की आग को पानी या कार्बन डाइआक्साइड गैस से नहीं भुजाया जा सकता। गुरबानी में आया है-- मै मनि तनि बिरहु अति अगला किउ प्रीतमु मिलै घरि आइ ॥  सिर्फ प्रीतम के मिलाप से या जैसे एक शोला समुन्द्र में जज़्ब हो जाता है तब ही बुझती है॥ गुरु साहिब और सूफी संतों ने अपनी  “बिरहनी तड़प” का जिंसी तजरबा अपने अपने अंदाज में लिखा है॥

अपने मुरशिद को मिलने या दीदार की मजबूरी इतनी जनूनी तड़प होती है, कि राबिया बसरी कहती है ---है रब बेशक तू मुझे अपना विसाल की बखशिश मत कर पर ऐसे हिज़्र के आलम से महरूम रहने का तुसव्वर भी न करना।   

गुरु साहिब लिखते हैं ----------  

मिलु मेरे प्रीतमा जीउ तुधु बिनु खरी निमाणी ॥ नैणी नीद आवै जीउ भावै अंनु पाणी॥ पानी अंनु भावै मरीऐ हावै बिनु पिर किउ सुखु पाईऐ॥

गमगीन हो कर—मुरीद कह रहा है कि “मुरशिद के दीदार के बिना मेरी ज़िंदगी पशेमानी और पेरेशानी में है कि अब इस हयात-ए कायनात में कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥ मोमिन अपने ज़हन में इस परेशानी को  चुप चाप सेहत है॥ रब के दीदार का हर वक्त यकीन और सब्र से  मुंतज़िर रहना और कबूलियत का इंतजार करना बिरह के हालत में ही होता है ॥  अलामा इकबाल लिखते है---------------  

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में॥

("For once, O awaited Reality, reveal Yourself in material form,For a thousand prostrations are longing eagerly in my submissive forehead) ओह -- रब-ए हकीकत, कभी मेरे सामने जिसमानी वजूद में आ ता कि में अपने माथे के हज़ोरों सजदों से नियाज़ दूँ॥ इकबाल की शायरी में ऐसा ज़हीन और अज़ीम अंदाज है कि समझ आते ही रूह कांप जाती है ॥ 

 

बिरह की बेहोशी में होश पूरी  होती है क्योंकि सारी कायनात का सरूर यकसर हो जाता है। “मंसूर अल हलाज” जब बिरह की मस्ती में आ गया तो “अनल हक” का नारा पूरी बुलंदी से लगा दिया ---“मैं ही सच का मुजस्स्म हूँ”॥ जब मस्ती खत्म हुई तब मंसूर ने जवाब दिया, कि उसने ऐसा कुछ कहा ही नहीं था ॥

 

मिर्जा ग़ालिब अपने कलाम में माशूक की जुदाई की तड़प के बारे में लिखते है --------------

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता//-- ग़ालिब

मैं तो सदियों तक अपने महबूब को मिलने का इंतजार करता अगर मेरी ज़िंदगी लंबी होती जाती //

 

रब की जात के याद की बेसबरी  में बाबा फरीद का कलाम गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है ---------------

बिरहा बिरहा आखीऐ बिरहा तू सुलतानु ॥फरीदा जितु तनि बिरहु न ऊपजै सो तनु जाणु मसानु॥

बिरह का अजीबो -ओ- गरीब अज़ाब ही इश्क़  का बादशाह है ॥ जिस शख्स के दिल में बिरह नहीं है उसको शमशान घाट के बराबर समझना चाहीये --- जैसे कि वोह मर गया हो ॥ बाबा बुल्ले शाह भी अपने जाती तजरबे को बताते हुए अपने मुरशिद से इश्क़  की तड़प और तनहाई को कहता है -------

“बिरह कटारी कस के मारी, तद मैं होई बी दिल भारी ॥ मुड़ के लायी न सार हमारी , पतियाँ तेरियाँ कचियाँ वे   मेरे माशूक, तुमने बिरह की तलवार चलाकर जो मेरे दिल में दर्द पैदा किया है , शायद तुमको उसका अंदाजा भी नहीं है ॥ और उसके बाद मेरे हाल से न वाकिफ हो ----तुम्हारे सारे वायदे झूठे हैं।

 

एक किस्सा है--------- जब कि आशिक एक रात को बेताब हो गए अपने मुरशिद के दर्शन के लिए , तब उसके मुरशिद उसकी जहोंपड़ी में आए ॥ रात काली सियाह थी और अपनी आँखों से उनका वोह मुरीद खुलकर दीदार करने का मुंतजर था ॥ ऐसी परेशानी में उसने अपनी जहोंपड़ी को माचिस जला कर आग लगा दी॥ मुरशिद मुस्करया और चला गया ॥ दीदार हो गया और घर तबाह हो गया ---- यही बिरह का रंग है॥ सूफी ग़ुलाम फरीद ने लिखा है------

यार फरीद ने पाया मुथएड़ा, लाया दर्द दिलायं दा झेड़ा, नी सड़ गया सीस सरीर वे असी दाग  कबर  दे॥ इश्क़  के शौक में गुलाम फरीद ऐसे फस गए कि सब कुछ उसकी बिरह में तबाह हो गया ॥

 

बिरह के जाती तुजरबे को कबीर साहिब कहते  हैं ----- कागा सब तन खाइयो,चुन चुन खाइयो मांस॥ बस दो नैना मत छेड़ियो , मोहे पिया मिलन  की आस ॥  अगर मैं समाधि में चल जाओं या मेरे को अपने मन तन की सुध बुध न रहे या मेरी  मौत हो जाए----तब सिवाये मेरी आखों के सारा मास खा लेना, पर मेरी बिरह की वजह से मेरी आँखों को मत छूना, शायद मेरे प्रीतम मुरशिद  के दर्शन हो जाएं ॥ गुरबानी भी कहती है --- हउ रहि न सकउ बिनु देखे मेरे प्रीतम मै अंतरि बिरहु हरि लाईआ जीउ ॥

जब तक कि वोह अपने मुरशिद का रू-ब-रु  दीदार नहीं कर पाता,  मुरीद के दिल-ओ दिमाग में  एक ऐसा अजीबो गरीब शदीद आज़ाब रहता है (I cannot survive without seeing my Beloved; deep within, I feel the pain of separation from the Lord)

 

 

WHEN Jesus pronounced, "Blessed are those who mourn, for they will be comforted", he was alluding to the profound mystical experience of those suffering pain of separation from the Beloved (Lord).  Mourning of soul reflects its deep distress for having lost in the labyrinth of creation, yearning to be one with the Lord. Such a feeling is called "Bireh or Vireh" and in Urdu/Persian language as "Hijr.

Jesus' disciples who felt fiercely sad and lonely after crucifixion witnessed him in his spiritual body after a few days ("known as resurrection of Christ), and that was the "blessing of comfort" for relieving the stress of their Vireh.

भगवान राम ने सब से पहले जंगल में जा कर शबरी (भीलनी) की कुटिया  में जूठे बेर खाए—और जब कि  अज़ीम इबादत करने वाले ऋषि मुनि  भी उनके दीदार के मुंतज़िर थे ॥ यह तो शबरी की शदीद बातिनी तड़प की खिचावाट का  असर था॥

इसी बिरह की वजह से गुरु अर्जन देव जी ने गुरबानी में लिखा है –मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई ॥-----इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता ॥मेरा मन अपने गुरु के दर्शन के लिए तरस रहा है, ऐसे  लगता है कि “एक पल” सारे कलयुग की तकलीफ और अज़ाब के बराबर है ॥

गुरु गोबिंद सिंह जी का “मित्तर प्यारे नूँ” पंजाबी ज़बान में एक मशहूर  कलाम है ----------------   मित्र प्यारे नु हाल मुरीदा दा कहना॥ तुध बिन रोग रजाईयां ओड़न  नाग निवासन दे रेहना॥ सुल सुरही ख़ंजर प्याला बिंग कसाईयो डा सेहना॥ यारडे डा साणु साथर चंगा भठ खेडेया डा रेहना

यहाँ मित्र लफ़्ज़ का मतलब परम परमेश्वर, खुदा या रब, के इश्क़  हक़ीक़ी से है॥ गुरु साहिब कह रहे है ----- मैं एक मुरीद के हालात को रब पर जाहिर  करता हूँ     रब के विसाल के बगैर रजाई (कम्बल) का सुख,  एक बीमारी है जैसा  सांपो के साथ रहना  है॥ उनके बिना सुराही काँटे के समान हैं और प्याला खंजर के मानिंद  है.. जीने का एहसास कसाईयों से कटते हुए किसी जानदार जिस्म  को होने वाली तकलीफ  के बराबर  है...:अगर मेरा यार मेरे साथ है तो मुझे मौत के अज़ाब से  भी प्यार है...यार के बिना रहना भट्ठी में जल रहे जिस्म के दर्द के मानिंद है... आखिर लाइन का मतलब यह भी है ---कि यार के एक फटे पुराने  कपड़े में रहना मंजूर है न कि रंग रलियों मनाने वालों के हजूम के साथ। 

वैराग

इश्क़ , इश्क़  से खौफ और फिर बिरह के किस्से का सार यह है कि इंसान वैरागी या बेरागी  हो जाता है ॥ गुरबानी कहती है “माई धीरि रही प्रिअ बहुतु बिरागिओ” ------ओह मेरी माँ, मेरे मन में इतना वैराग आ गया है और इतनी बेसबरी आ गई है कि मैं अपने प्रीतम को मिले बिना रह नहीं सकती ॥ और फिर “जो प्रभ की हरि कथा सुनावै अनदिनु फिरउ तिसु पिछै विरागी” ---मेरे को जो अल्लाह की बात बताए या तवज्जो दिलाए मुझ को वोही मेरा बेली है दोस्त है ॥  बाबा बुलह शाह कहता हैं – घूँघट ओले न लुक सोन्या, मैं मुश्ताक दीदार दी हाँ ॥ बेराग में कबूलियत के लिए एक ज़हीन पर्दा भी आशिक के लिया अज़ाब बन जाता है ॥   

 

हम दुनिया के काम के लिए अपने विवेक को इस्तेमाल करता हैं ॥ वैराग में विवके की तफ़सीर (interpretation) वह है जब  दुनिया, दीन और रुहानियत  की वाजिब समझ आ जाती है ॥  वैरागी वो है जिस में संसार के सब रागों का शौक खत्म हो गया हो ॥ सार यह है कि ऐसे मुरीद को दुनिया और दुनिया की हर माली शै से ला-तालुकी का एहसास होने लगता है॥ इसको  “तसव्वुफ़”- (मतलब सूफी सिलसिलो) में जुहूद कहा जाता है ---या फिर state of mental renunciation  मुरीद को दुनिया की फ़ानी हकीकत का शऊर  आ जाता है, शरीयत या कर्म कांड के दायरे से परे चल जाता है  और वो हक की हकीकत में जज़्ब हो जाता है ॥  दुनिया में रहते हुए दुनिया के फिक्र से बंदा फक्कड़  हो जाता है—a state of absolute detachment॥ वैराग में मन डाँवाँ डोल नहीँ होता है, सहज में रहता है ॥

खुदा पर यकीन और उसकी रज़ा एक हयाती  मकसद बन जाता है ॥ आदमी  नफ़स की  गर्दिश से ऊपर उठ जाता है॥ और उस कमाल-ए-करामात, कायम -ए करीम, रज़ाकार, रिज़क कार, बखशनहार , रहमान -ओ -रहींम,  रब्बुल -अलमीन , वाहद -उल-शरीक रब के सिवाये किसी का ख्याल -ओ-एहसास अच्छा नहीँ लगता ॥ उनकी सुरत अवाज़-ए-मुस्तकीम , इस्म-ए आजम, कलाम-ए इलाही, अनहद बानी  में रमी  रहती है ॥ गुरबानी के अल्फ़ाज़ में इस वैराग के हालात को ऐसे कहा गया है  अनदु सुणहु वडभागीहो सगल मनोरथ पूरे ॥पारब्रहमु प्रभु पाइआ उतरे सगल विसूरे ॥ 

          

और यह भी सच है कि आदमी अपनी ताकत से या खवाइश से रुहानियत  के रस्ते पर नहीं चल  सकता ॥ ऐसी चाहत वाले बंदे को एक मुरशिद-ए- कामिल की जरूरत है जो कि खुद खुदा से विसाल कर चुका हो। जब अल्लाह का नज़र-ए -करम  होता है, तब वोह एक प्यासी रूह को मुरशिद-ए- कामिल के पास भेज देता  है ॥ बंदे को मुरीद बनना पड़ता है और इसके बाद ही उसका रूहानी सफर में आगाज होता है ॥ एक नई ज़िंदगी बातीनी (inner) के तरफ शरू होती है ॥

 


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