Thursday, March 25, 2021

Ishq

 इश्क 

वारिस शाह अपने किस्से हीर-राँझे में लिखते हैं—“ अवल हमद खुदा का विरद कीजे , इश्क कीता सू जग द मूल मियां ॥ पहले आप ही रब न इश्क कीता, माशूक है नबी रसूल मियां ॥ सबसे पहले, हम उस अज़ीम वाहिद-उल -शरीक  खुदा की तारीफ करते हैं जिसने सिर्फ इश्क को अपनी खुद- शिनासी के लिया कनून-ए-निजाम बनाया॥ खुदा ने खुद अपनी मोहब्बत से ही अपने महबूब रसूल मोहम्मद साहिब को राज़े -इश्क से आशकार किया ॥

इश्क और अल्लाह में कोई फरक नहीं ॥ क्योंकि इश्क से ही दुई की दूरी दूर होती है और तवहीद का आगाज़ होता है ॥ इश्क क्या है, इसको बयान नहीं किया जा सकता पर महसूस किया जा सकता है॥ इश्क जितना ज़ोर मारता है, उतनी ही इश्क की कमी का एहसास होता है ॥ इश्क ला-इंतह है, बेहद है मन की समझ से बाहर है क्योंकि इंसानी अक्ल हदुदी है । इश्क में अपनी हस्ती खत्म करनी पड़ती है, जब कि दुनिया की जदो-जहद अपनी हस्ती को बुलंद करने पड़ती है ॥ आशक समझता है वोह मुहब्बत करता है –असल में मशूक की खूबसूरती उसको इश्क करने से मजबूर करती  है ॥ इश्क  ॥ इंसान हेरान और परेशान हो जाता है कि इश्क की चिंगारी कैसे लगती है इस पर किसी ने वाजिब नतीजे पर नहीं पहुंचता ॥  

रुहनीयत के जान कारों ने , जिन्हों ने अल्लाह से विसाल किया है, उन का कहना है अल्लाह के फ़ज़लो कर्म से इंसान की रूह में इश्क का बीज डाला गया है॥ इश्क हमेशा  इंसानी ज़हन, एहसास और शऊर में आँदूरी बदलाव लाता है ॥ ॥ यहाँ पर इश्क हक़ीक़ी की तरफ इशारा है जिसमे जिस्मी तालुकत, जिंसी खवाशियत या इंसानी वजूद की मोहब्बत की मंशा नहीं होती  ॥ इश्क हक़ीक़ी का फजल-ओ कर्म  कैसे होता है, जिसमे कलमे या ईसमे-आजम की इबादत  और मुरशिद-ए-कामिल की बंदगी ,प्रेम और बिरह शामिल हैं –इन सब की  तरतीब थोड़ी देर में होगी  ॥ पहले इश्क हक़ीक़ी के बारे में कुछ खयलात लिखना जरूरी है ---

मीरदाद लिखते हैं- इश्क कानून-ए -खुदा है ॥ इश्क से ही इबादत सीखी जा सकती है और बंदे की ज़िंदगी का मकसद भी अल्लाह से इश्क करना है ॥ इश्क का अंधा सब कुछ देख सकता है क्योंकि उसको किसी दूसरे  में कोई खामी, कसर, कोताही या खराबी नजर नहीं आती है ॥ (Love is blind but that blindness is the height of seeing.)

गुरु नानक साहिब –नदानी यह दुनिया व फ़ानी मुकाम ॥ तूं खुद चशम बीनी है चलना जहान॥   हर वकत बंदे न तू खिदमत विसार ॥ मस्ती और गफलत में बाज़ी न हार ॥ दुनिया का बाजार बड़ा अहमकाना (ignorant) और काबिले तबाही, फ़ानी या आरज़ी है temporary है ॥ ओह बंदे उस मालिक से इश्क या खिदमत से मुंह मत मोड़ना॥    

हाथरस के संत तुलसी साहब भी यही कहते हैं की “ये राहे- मंजिल इश्क है” इसका मतलब रूहानी रास्ता भी इश्क है  और मंजिल भी इसकी इश्क है ॥ आगे कहते हैं “मंसूर, सरमद, बु-आली और शमस, मौलाना हुए पहुंचे सभी इस राह से जिन्होंने दिल पुख्ता किया” ॥ ये तो एक बहुत बड़ा ऐलान  है के दुनिया के अज़ीम सूफी हज़रात  मंसूर -अल हलज, सरमद जिनको इश्क की खातिर फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया और बु-आली कलंदर जिसने उस परवरदिगार के इश्क में पानी में अपना जिस्म गलतान कर दिया॥ शम्स तबरेज और मौलाना रूम-- मुरशिद और मुरीद—की आपसी इबदात, कुर्बत, नजदीकियों   —की वजह से शमस का भी गला काट दिया गया॥ और फिर  मौलाना रूम ने अपने मुरशद के इश्क में अपना सारा फलसफा शरिया से इश्क  में बदल दिया॥   

केई सूफिआन और संत महात्मा “वजूद की हयात” से नजात या संसारी ज़िंदगी से मुक्ति पाने के लिए “आबे-हयात” के लफ़्ज़ का  जिक्र करते हैं ॥ इसको nectar of immortality भी कहा गया है॥ जिस को पीने के बाद इंसान का आखरीयत का सफर फ़ना में होता है और 84 की गर्दिश से आजादी मिल जाती है॥ अमृतसर ( अमृत का सरोवर या अमर होने का सरोवर ) वोह जगह है जहां खुदी से निजात मिलती है ॥ यह कोई बाहर का ईंट, पथर, पानी का सरोवर नहीं है --- पर एक मिसाल के तौर पर समझने के लिया है ॥   

आबे -हयात कोई जाहरी, बाहरी या गैब रूप का पानी नहीं है ॥  असल में “इश्क हकीकी” में अपनी हस्ती को नसतो-नाबूद करना ही “आबे -हयात” है ॥ ऐसा इश्क में आशक और माशूक की त्वहीद(oneness)  हो जाती है, दुई का एहसास खतम हो जाता है॥  कुफ़र -ईमान- यकीन- बुत- बुतखाना- हरम  या शिरक की सारी बहस “आबे -हायती -इश्क” में खत्म हो जाती है ॥  

मैं अजल से बंद इश्क हूँ , मुझे जहदो कुफ़र का गम नहीं ॥

मेरे सर को दर तेरा मिल गया , मुझे अब तलाशे हरम नहीं॥

मतलब –इश्क को इश्क की मंजिल मिल गई और रूह का हायती सफर खतम हो गया ॥ 

 

“मंसूर अल हलज”, जिन की “अनल हक” की  मुबारक नसीहत अपने मुरीदों को इश्क की थी, कहते हैं

कहे मंसूर‘ मस्तानाये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ानाउसी के बीच आता जा I   

बाबा बुल्ले शाह भी कहते हैं कि जब मेरे को इशक की रमज़ समझ आ गई तो मैं और तूं का  झगड़ा ही खत्म हो गया॥  मतलब के उस खुदा के सिवा मुझे कुछ नजर ही नहीं आया॥  ये इश्क कि  बहुत बड़ी करामात है ---

जा मैं रमज़ इश्क दी पाई मैंना तोता मार् गवायी

अंदरू बाहरों होयी सफ़ायी जिस वल देखो यारो यार

 

शमज़ तेबरेजी ने खुदा के इश्क के बारे बहुत इशारे किया हैं,  मसलन –जहां इश्क है वहँ दर्द भी लाज़िम है ॥ जिस्मानी सफाई के लिए रोज़े और तोबा की जा सकती है पर रूह के ऊपर जो  मन की गलाजत के परदे पड़े हुए है यह सब इश्क, खिदमत और इबदत से ही नकारे किए जा सकते हैं ॥  

 

नफरत भी इश्क है क्योंकि जिस से को बंदा नपसंद करता है या दुश्मन समझता है  उसके बारे में वोह बहुत सोचता है और उसमे मुब्तला रहता है॥ जो लोग किसी की मुखालफत करते है , वोह भी इसी सोच में रहते हैं के दूसरा आदमी मेरे ख्यालों से क्यों नहीं सहमत होता ॥  

 

सूफी और संत यह भी समझाते है कि खुदा की रजा या मंशा में खुशी खुशी रहना बहुत वाजिब जरूरत है ॥ गुरु नानक साहिब कहते हैं --- किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥

हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥ मतलब कि हकीकत का एहसास कैसे होता है और दवेत या दूजे भाव या माया से (जिसको गुरु साहिब ने कूड़ कहा है ) ज़हन को  कैसे बे-दखल किया जा सकता है ॥ मुकमे हक  या सचखंड  के लिए गुरु साहिब ने एक ही तदबीर बतायी है ---- कि उस खुदावंद के एहसास के लिए उसकी रज़ा,मौज से जो  हालात उसके हुकम या इस्म-ए -आज़म या नाम की वजह से ज़िंदगी में आते हैं या आएंगे , उनको अल्लाह की रहमत या बखशिश समझ कर शुकरने से कबूल कर लेना चाहीये ॥ इस तरह की कबूलियत अपनी हस्ती को नासतो-नाबूद करने से आती है ॥ इश्क ही एक ऐसी तरीकत है जिस से कि बंदा अपने वजूद को फ़ना कर सकता है ॥ क्यों कि मुकामे इश्क में ही दुई दूर होती है -------मैं, तूं , हम, वोह, तेरा, मेरा का अंदेशा खत्म होता है ॥ मिर्जा ग़ालिब ने इस को अपनी गजल में ऐसे लिखा है  -- हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है॥ खुदा के इश्क से बे-वफ़ायी ही इंसान के दर्द की वजह है ॥

 

 


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